Thursday, December 6, 2012

# Andha Yuddh

दोस्तों,फ़र्ज़ कीजिये एक ऐसी कहानी का जिसमे एक आतंकवादी किसी राज्य के मुख्यमंत्री का क़त्ल कर एक घर में घुस जाता है जिसमे अपनी माज़ूर और दूसरों पर बोझ बन चुकी ज़िन्दगी से निराश मौत की कामना करती पैरो से अपाहिज एक लड़की मौजूद होती है । आतंकवादी उस बेबस और ज़िन्दगी से मायूस लड़की को बंधक बना लेता है । पुलिस मकान को चारों तरफ़ से घेरे खड़ी है ।  आतंकवादी के बच निकलने के एकलौता सहारा वह अपाहिज लड़की है जो पहले से ही अपने ज़िन्दगी से बेज़ार है और दिन-रात मौत की कामना करती रहती है ।  आतंकवादी लड़की की जान लेने की धमकी देकर पुलिस को धमकाए रखता है और एक जाँबाज़ और कर्मठ इंस्पेक्टर सीमित संसाधनों के बावजूद उस खूँखार आतंकवादी को पकड़ने की तमाम जुगतें लगाता बैठता है । अपनी ज़िन्दगी से परेशान विकलांग लड़की आतंकवादी से उसके मक़सद ,दहशतगर्दी और दूसरों की जान लेने के उसके कृत्यों की सार्थकता के बाबत पूछती है जिसके जवाबों से उस आतंकवादी की मनोस्थिति की कैफ़ियत से वाकफियत होती है ।  जितना अरसा वह आतंकवादी और लड़की साथ गुज़ारने पर मजबूर होते हैं उसमे एक दहशतगर्द की मानसिकता के कड़वे लेकिन रोचक पहलु उजागर होते हैं ।

दोस्तों,आज हम एक ऐसी फ़िल्म के बारे में बात करेंगे जिसमे यह विषय बड़ी संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ हैंडल किया जाता है और इस फ़िल्म का नाम है 'अँधा युद्ध'





शायद 'अँधा युद्ध'(1988) का नाम भी बहुतों ने सुना तक न हो लेकिन यह एक निहायत ही बेहतरीन,
सार्थक और प्रासंगिक फ़िल्म है जिसकी प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई है । दयाल निहलानी द्वारा लिखित और निर्देशित फ़िल्म उन चुनिन्दा सार्थक फ़िल्मों में से हैं जो समुचित प्रचार-प्रसार के अभाव में ख़ामोशी से आई और ख़ामोशी से चली गयीं । आज अगर हम नाना पाटेकर को एक तीक्षण और तेज़ाबी अभिनेता के तौर पर जानते हैं तो 'अँधा युद्ध' नाना की इस इमेज की बुनियाद रखने वाली फ़िल्मों में से एक है । राज बब्बर को कभी भी एक उच्च कोटि का अभिनेता नहीं समझा गया लेकिन 'अँधा युद्ध' बब्बर के प्रति इस प्रचलित धारणा पर सवालिया निशान है ।

तो आईये चलिए तब्सिरा शुरू करते हैं इस फ़िल्म पर इसके चुनिन्दा दृश्यों के साथ । फ़िल्म आरम्भ होती है और हम देखते है की सरोज(पल्लवी जोशी) एक अपाहिज लड़की है जिसके दोनों पैर बेकार हैं और जो अपनी इस बोझ बन चुकी ज़िन्दगी से खिन्न है उसके माँ-बाप(शिवाजी साटम,रोहिणी हट्टंगडी) उसे नज़दीक के शहर में किसी मंदिर में दिखाने आये हुए हैं ।


सरोज के पिता ताँगा करके लाते हैं और उसको ताँगे पर बिठा कर मंदिर ले जाते हैं(ताँगा तो आजकल दुर्लभ सवारी हो गई है,क्या आपमें से किसी ने ताँगे की सवारी का मज़ा लिया है!) ।



इस वक़्त उसी क़स्बे में दूर कहीं राज्य के मुख्यमंत्री किसी जगह भाषण दे रहे होते हैं जिसके बीच उन्हें उन्ही की पार्टी के एक अन्य सदस्य द्वारा रची गयी साज़िश के तहत गोली से उड़ा दिया जाता है ।



ड्यूटी पर तैनात एसपी सुहास दांडेकर(नाना पाटेकर) गोली चलाकर भागी कार का पीछा करता है । पुलिस और आतंकवादियों के बीच होती गोलीबारी में कार के बाकी के सवार मारे जाते हैं और मुख्य आतंकवादी राजा(राज बब्बर) नज़दीक के एक घर में घुस जाता है और वहां मौजूद अकेली सरोज को बंधक बना लेता है ।




तो सूरतेहाल यह है कि चूँकि घटना राज्य के एक सुदूर कस्बे में होती है जहाँ अतिरिक्त पुलिस बल पहुँचने में टाइम लगना है अत: एसपी दांडेकर पर चंद उपलब्ध सिपाहियों के बल पर ही आतंकवादी को पकड़ने या और नुकसान करने से रोकने की बड़ी ज़िम्मेदारी है ।




 दांडेकर अपनी कोशिशें जारी रखता है जो नाकामयाब साबित होती हैं ।



उधर मकान में एक आतंकवादी के हमले से घबरायी और आरंभिक सदमे से उबरने के बाद सरोज जब राजा से उसके हिंसात्मक कृत्यों की सार्थकता के बाबत सवाल करती है तब हम देखते हैं कि राजा अपनी करतूतों को जायज़ ठहराते हुए बताता है कि वह हत्या नहीं बल्कि ऐसे लोगों का वध करता है जो समाज की गंदगी हैं एवं जिन्हें जीने का कोई हक़ नहीं है ।



 जैसे जैसे सरोज और राजा के बीच की बातचीत शक्ल लेती है हमें फ्लैशबैक की झलकियों के ज़रिये पता चलता रहता है कि राजा कोई पेशेवर हत्यारा न होकर प्रतिकूल हालातों का शिकार होकर आतंक की दलदल में धंसा है ।  बचपन में स्कूल शिक्षक द्वारा यौन शोषण,कॉलेज में सीनियर्स द्वारा अपमानजनक रैगिंग,दंगों में लाइब्रेरी से लौटते हुए बेगुनाह राजा की गिरफ़्तारी एवं तदोपरांत जेल में आतंकी ग्रुप द्वारा ब्रेनवाश यह सभी कारक बनते हैं एक युवक के आतंक के जाल में फँसने के । और यह सभी चीज़ें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं क्योंकि आज भी आतंकी समस्याओं से जूझ रहे हमारे देश के जाने कितने भटके हुए नौजवान इन्ही परिस्थितियों में फँसकर आतंकियों के हाथों इस्तेमाल किये जा रहे हैं ।
इस बीच दांडेकर राजा को पकड़ने की नई-नई तरकीबें निकालता रहता है जैसे सरोज को दवा देने की ज़रूरत पैदा कर एक नर्स को सरोज के पास भेज कर राजा पर किसी तरह क़ाबू पाने की कोशिश ।





 लेकिन उसकी तमाम कोशिशें राजा की चालाकी के आगे नहीं चलती और आख़िरकार राजा सरोज को बंधक बनाकर घर से बाहर निकल जाता है लेकिन एक ढाबे पर सरोज के लिए पानी ढूँढता राजा अंतत: दांडेकर के 'एनकाउंटर' का शिकार हो जाता है ।



सरोज जब दांडेकर को बताती है कि राजा ने किस के कहने पर मुख्यमंत्री की हत्या की थी तो दांडेकर को राजा को ख़त्म कर देने की अपनी भूल का एहसास होता है ।


तमाम पुलिस विभाग दांडेकर को एक खूंखार आतंकवादी को मार गिराने की बधाइयाँ दे रहा होता है लेकिन अन्दर ही अन्दर खुद से नाराज़ और क्षुब्ध दांडेकर जानता है कि असली आतंकवादी दरअसल राजा नहीं बल्कि वह भ्रष्ट राजनीतिज्ञ है जिसने मुख्यमंत्री की हत्या करवाई और उस पल उसे राजा और खुद में कोई ख़ास अंतर महसूस नहीं होता क्योंकि दोनों को ही इस्तेमाल किया जा रहा था; राजा का आतंकियों द्वारा इस सड़े-गले सिस्टम को ख़त्म कर नई व्यवस्था और परिवर्तन लाने के नाम पर और दांडेकर जैसे कर्मठ और ईमानदार अफसरों को भ्रष्ट राजनीतिज्ञों द्वारा राजा जैसे उनकी करतूतों के सबूत को ख़त्म करने के लिए ।

उद्देलित,क्षुब्ध,विस्फारित और ठगा सा रह जाने वाला दांडेकर जो हरकत कर बैठता है और जिसको देखकर देखकर दर्शक बरबस ही ताली बजाने पर मजबूर हो जाते हैं वह हैरतंगेज़ कृत्य इस फ़िल्म के विस्फोटक
क्लाइमेक्स की श़क्ल लेता है जिसका यहाँ मैं खुलासा कर उन दर्शकों का मज़ा ख़राब नहीं करना चाहता जिन्होंने यह फ़िल्म नहीं देखी है ।

'अँधा युद्ध' का एक अलग ट्रीटमेंट इस फ़िल्म को विशिष्ट बनाता है और दर्शकों को मनोरंजन के साथ बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी करता है ।  राजा का खुद को हत्यारा न समझ कर समाज की गंदगी साफ़ करने वाला जमादार समझना,सरोज का चुभते हुए सवालों से उसकी अंतरात्मा को कचोटना,नाना पाटेकर की किसी भी क़ीमत पर राजा को पकड़ने की बेचैनी और अंत में खुद का इस्तेमाल किया गया जान कर तमाम क़ायदे-क़ानून ताक पर रखकर अपने मन की आवाज़ सुनना । यह सभी आपको पहले दृश्य से जो बांधे रखते हैं तो आपकी तन्द्रा अंतिम दृश्य की नाना की गोली की आवाज़ से ही टूटती है । फ़िल्म की स्क्रिप्ट बेहद जानदार और स्वाभाविक है जो हर दृश्य में नाटकीयता से परे हकीक़त का अहसास कराती है । चाहे वह मुख्यमंत्री की सभा में प्रोटेस्ट कर रहे लड़कों के विरुद्ध नाना के तेवर हो या फिर घटनास्थल पर अनचाही भीड़ और मीडिया के फोटोग्राफर को लताड़ने के दृश्य हों सभी को बड़ी ही स्वाभाविकता के साथ दर्शाया गया है ।
दयाल निहलानी का निर्देशन बेहद चुस्त है और उनकी स्क्रिप्ट बेहद कसी हुई जो दर्शकों को दो दृश्यों के बीच साँस लेने नहीं देती और हर पल उनकी उत्सुकता क़ायम रखती है कि अब अगले दृश्य में क्या होने वाला है ।

जहाँ तक अदाकारों की बात है तो नाना पाटेकर एक कर्तव्यनिष्ठ और कर्तव्यपरायण पुलिस अफ़सर की भूमिका में कमाल का अभिनय करते हैं । सीमित संसाधनों और मुश्किल स्थिति में एक घर में घुसकर बैठे आतंकवादी का नाश करने हेतु एक कटिबद्ध गुस्सैल पुलिसवाले की भूमिका में नाना सचमुच कमाल कर जाते हैं और यह दिखाते हैं कि विशिष्ट,सनकी और कुछ हटके चरित्र वाली भूमिकाये निभाने में उनका कोई सानी नहीं । फ़िल्म के विस्फोटक क्लाइमेक्स के मद्देनज़र अगर उनको 'एंग्री बियर्डेड मैन' का ख़िताब दिया जाये तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।
राज बब्बर जिनको कि कभी उच्च कोटि का अभिनेता नहीं समझा गया वह अपने ऐसा समझने वाले आलोचकों को 'अँधा युद्ध' में मुंहतोड़ जवाब देते दिखते हैं । एक दमनित युवक और बेरहम,बहके हुए आतंकवादी-जो अपने विश्वास और मान्यताओं को सही समझता हुआ उनपर अडिग है-की भूमिका बब्बर बड़े प्रभावशाली अंदाज़ में निभाते हैं । खूँखार,पल में तोला पल में माशा होते जाते और कुछ-कुछ अजमल आमिर क़साब के से आतंकवादी चरित्र में बब्बर जान डाल देते हैं और परदे पर उन्हें देख यही गुमां होता है कि सच में ही कोई दहशतगर्द घर में घुसा बैठा है । बब्बर की एक्टिंग क्षमताएं इस फ़िल्म में अपनी बुलंदी पर हैं और उनको कमज़ोर एक्टर समझने वालों को दोबारा ऐसा कहने से पहले एक बार इस फ़िल्म को ज़रूर देख लेना चाहिए ।
अपाहिज,माज़ूर और जीवन से निराश लड़की की भूमिका पल्लवी जोशी ने असरदार तरीके से निभाई है और 'वह छोकरी' के अलावा 'अँधा युद्ध' ही एक ऐसी फ़िल्म है जिसमे पल्लवी को सार्थक चरित्र निभाने को मिले हैं ।  दांडेकर की योजना में फिट बैठती एक सीधी-साधी नर्स की भूमिका दिव्या राणा अच्छी तरह से निभा ले जाती हैं । सहायक भूमिकाओं में रोहिणी हट्टंगडी,शिवाजी साटम,आशा शर्मा,अनंत जोग,सुधीर पांडे आदि सब अपनी-अपनी भूमिकाओं से न्याय करते हैं ।

संक्षेप में 'अँधा युद्ध' एक ऐसी कमसुनी और अनजान फ़िल्म है जिसे समय की गर्द ने भले ही ढाँप दिया हो लेकिन अगर इसकी धूल-धुसरित सतह पर एक हल्का सा हाथ भी लगाया जाये तो नीचे से ऐसी किरणें फूटती हैं जो देखने वाले की आँखों को चकाचौंध कर देती हैं ।
अगर आप सार्थक,मनोरंजक और विचारशील फ़िल्में देखना पसंद करते हैं तो 'अँधा युद्ध' एक ऐसी फ़िल्म है जो आपकी देखी जाने वाली फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में अवश्य ही शीर्ष का स्थान पाने के सर्वथा योग्य है,अत: अगर आपने इसे पहले देख चुके हैं तो एक बार फिर देखें और यदि आपने इसे नहीं देखा है तो आपकी मानसिक क्षुधा की परम संतुष्टि हेतु आपको इसे फ़ौरन से पेश्तर देखने की सलाह दी जाती है ।
 

10 comments:

kanwal said...

Maine film dekhi nahi thi - par aap ki post padhte hue laga ki jaise dekh raha hoon.

Jis tarah film ke drishyon ko aap ne apne vishleshan ke saath joda hai - wo lajawab hai.

Main halanki films ka bahut zyada shaukeen nahin hoon - par aap ki yeh post - guarantee hai ki main yeh film dekhne jaa raha hoon.

Waise dayal nihlani ek pakke - vyavsaayik - filmen banane waale nirdeshak rahe hain - aise main mujhe pata hi nahin tha ki - unhone aisei saarthak film bhi banai hai.

Jahaan tak mujhe dhyan padta hai - 80 ke dashak main - sunny - dharmensra - dimple - shatrughan sinha - chunky pandey - aadi ko lekar wo hamesha commercial cinema banate rahe hain.

Aap ke is behatreen - vishleshan - ke lie dhanyawaad.

जितेन्द्र माथुर said...

हसन भाई, आपका दिल से आभारी हूँ जो आपने मुझे यह बेहतरीन फिल्म देखने के लिए प्रेरित किया . पहले मैंने इसका लगभग आधे घंटे का भाग देखा था . पर दूसरी बार देखने लगा तो पूरी किये बिना छोड़ ही नहीं सका . आपने इसकी जो तारीफ की है उसकी यह फिल्म पूरी तरह से हक़दार है . जहां नाना पाटेकर एंग्री यंग मैन के रूप में सामने आते हैं वहीं राज बब्बर ने एक मासूम अपराधी की हृदयविदारक भूमिका में लाजवाब अभिनय किया है और टीवी की अभिनेत्री के रूप में जानी जाने वाली पल्लवी जोशी का भी अपंग लडकी के किरदार में अभिनय काबिले दाद है . नर्स के रूप में दिव्या राणा भी बहुत प्रभावित करती हैं . फिल्म हमारी सोचों को झकझोरती है और बिना किसी कॉमेडी या रोमांस जैसे स्टैण्डर्ड फार्मूलों को काम में लिए हर पल अपने मूल लक्ष्य पर ही केन्द्रित रहती है . उस ज़माने में टीवी मीडिया नहीं था पर अखबारी मीडिया भी जिस तरह का नकारात्मक दृष्टिकोण लेकर चलता था, उसे बखूबी उकेरा गया है . राजनीतिबाज़ों का असली रूप तो ख़ैर उजागर किया ही है निर्देशक ने .

लेकिन हसन भाई, मुझे लगता है कि किन्हीं अज्ञात कारणों से निर्देशक क्लाइमेक्स के साथ न्याय नहीं कर सका . फिल्म हड़बड़ी में ख़त्म की गयी लगती है . न तो राज बब्बर को अपने साथ हुए ज़ुल्मों और हक़ीक़त को समझकर अपने किए पर पछताने की बात दूसरों को ठीक से बता पाने का मौका दिया गया और न ही आखिर में पल्लवी जोशी और दिव्या राणा के किरदारों को दिखाया गया कि राज बब्बर की मौत उन पर क्या असर छोड़कर गयी क्योंकि वे दो इंसान ही थे जो कि उस मासूम मुजरिम को ठीक से समझ पाए . शायद राज बब्बर पल्लवी जोशी को मन-ही-मन प्यार करने लगा था (तभी उसने उसके लिए लाल साड़ी मंगवाई और उसको बड़े जज़्बाती ढंग से लेकर निकला) . मेरे ख्याल से इस बात को भी थोडा सा विस्तार चाहिए था (सीधे न सही अप्रत्यक्ष ढंग से) .

मैं क्लाइमेक्स में नाना पाटेकर द्वारा किए गए एक्ट को गले नहीं उतार सका और मुझे ऐसा लगा कि शायद अगली पंक्ति के दर्शकों की तालियाँ बटोरने के लिए और फिल्म को थोडा सा कॉमर्शियल टच देने के लिए ऐसा किया गया जो कि फिल्म के बाकी के यथार्थपरक हिस्से से मेल नहीं खाता . फिल्म ख़त्म होने के बाद मुझे लगा कि अगर मैं इस फिल्म का निर्देशक होता तो फिल्म की लम्बाई दस-पंद्रह मिनट ज्यादा रखता और आख़िरी भाग को ज्यादा तर्कपूर्ण और मुक़म्मल शक़्ल देता . फिल्म में उठे कुछ सवाल जवाब के लिए मुन्तज़िर रह गए, मसलन नाना पाटेकर को सपोर्ट देने के लिए भेजी गयी पुलिस फ़ोर्स की जीपों को विस्फोट में उड़ा दिए जाने के पीछे क्या कहानी थी, राज बब्बर भाग निकलने के बाद क्या करने वाला था और किससे मिलने वाला था वग़ैरह . इसलिए फिल्म पूरी होने के बाद मुझे कुछ अधूरेपन का सा अहसास हुआ . शायद फिल्म के फ्लॉप होने के कारणों में से एक यह भी रहा होगा . फिल्म का टाइटल सार्थक है मगर इसका खुलासा राज बब्बर, नाना पाटेकर या पल्लवी जोशी के मुँह से करवाया जाना चाहिए था क्योंकि आम दर्शकों को तो ऐसे समझ में नहीं आएगा कि फिल्म का नाम अंधा युद्ध क्यों रखा गया है .

लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अंधा युद्ध एक बेहतरीन शाहकार है और इसे ठीक से प्रमोट करके ज़्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाना चाहिए था . फिल्म के सभी किरदार हाड़-मांस के बने हुए इंसान हैं और फिल्म देखने के बाद यही सन्देश दिल में जाता है कि हर शख्स को सबसे पहले एक इंसान के रूप में ही देखा जाना चाहिए बजाय उस पर टीका-टिप्पणी करने या उसे ग़लत समझने के . जो इंसान आज ग़लत लग रहा है न जाने अपनी ज़िंदगी में वो किन हालात से गुज़र चुका हो, क्या-क्या नहीं सह चुका हो, क्या-क्या नहीं गंवा चुका हो ?

आपका ज़िन्दगी भर अहसानमंद रहूंगा कि इस बेहतरीन फिल्म के बारे में मैंने आपसे ही जाना और आपकी प्रेरणा से ही इसे देखा .

Unknown said...

Zaheer Bhai well I think if the film Andha Yudh is as excellent as your review is then it is worth watching. I have heard about this film in my childhood only but have not seen. I am afraid, if I keep reading your reviews I will be bound to buy a DVD Player and start searching for all the films you are reviewing. Again Congratulations on picking a forgotten film and inspire us to see some worthwhile cinema. Aap hamari aadaten sudhar denge.Sharad

Comic World said...

शुक्रिया कँवल जी इस पोस्ट को पसंद करने के लिए । मेरे ख्याल से आप निर्माता-निर्देशक पहलाज निहलानी की बात कर रहे हैं जिन्होंने गोविंदा इत्यादि को लेकर 'आँखे,शोला और शबनम,पाप की दुनिया' जैसी विशुद्ध व्यावसायिक फ़िल्में बनायीं थी । 'अँधा युद्द' के निर्देशक दयाल निहलानी अलग है जिन्होंने 'अँधा युद्ध' के अलावा राज बब्बर को लेकर 'कर्मयोद्धा' जैसी फ़िल्में बनायीं थी ।

PD said...

बहुत पहले देखी थी इसे, कोई 17-18 साल पहले. मगर उसकी छाप अभी तक मन में जस की तस है. मेरी मम्मी की पसंदीदा फिल्मों में से एक है यह.
अगर मुझसे पूछेंगे तो मुझे सबसे जानदार अभिनय पल्लवी जोशी का लगा था.

Comic World said...

जीतेन्द्र भाई आपकी इस दिलचस्प और वसीह कमेंट के लिए शुक्रिया । जीतेन्द्र भाई मैं आपकी इस बात से इत्तेफ़ाक रखता हूँ कि फ़िल्म में कुछ नुक्तों को अनुत्तरित छोड़ दिया गया जैसे कि पुलिस फ़ोर्स की गाड़ियाँ किसने उड़ाई और राज बब्बर सरोज को लाल साड़ी पहना कर क्यों और कहाँ जाने को निकला । मेरे ख्याल से फ़िल्म का शीर्षक जोकि 'अँधा युद्ध' है उसका मक़सद उस युद्ध की बेमतलबी को इंगित करना है जो एक आतंकवादी और एक पुलिस अफ़सर एक दुसरे के विरुद्ध लड़ रहे हैं । दोनों ही एक किस्म का अँधा युद्ध लड़ रहे हैं क्योंकि दरहकीक़त दोनों के ही युद्ध की कोई सार्थकता नहीं है और दोनों ही अपने-अपने असली दुशमनों के खिलाफ़ न लड़कर बल्कि किसी के द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं । बहके हुए दमनित नौजवान आतंकवादी गुटों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं और पुलिस फ़ोर्स भ्रष्ट सत्ताधारी राजनीतिज्ञों द्वारा । कहने का मतलब यह हुआ कि दोनों ही की आँखों पर पट्टी बंधी हुई है और दोनों ही एक तरह का अँधा युद्ध लड़ रहे हैं बिना अपने असली दुश्मन की पहचान किये हुए ।
मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि क्लाइमेक्स में नाना द्वारा किया गया एक्ट मुख्यतया अगली पंक्तियों के दर्शकों को लुभाने के लिए ज़्यादा किया गया था बनिस्बत एक यथार्थपूरक और विचारणीय अंत के । शायद यह व्यावसायिक और समान्तर सिनेमा के बीच संतुलन साधने हेतु किया गया हो ।
जहाँ तक दिव्या राणा और पल्लवी जोशी की बब्बर की मौत के बाद की स्थिति की बात है तो मुझे लगता है कि दिव्या अपनी नर्स की मुख़्तसर भूमिका निभा चुकी थीं और कहानी में उनकी भूमिका के अधिक विस्तार का कोई भी औचित्य्पूरक स्कोप बनता था । हाँ,पल्लवी जोशी जो ज़िन्दगी के प्रति निराश थी इस पूरी घटना से जीवन के प्रति उसकी सोच में आये हुए आशावादी दृष्टिकोणों को विस्तार दिया जा सकता था और यह बताया जा सकता था कि कैसे पल्लवी जोशी के नैराश्य में कमी आई और जीवन के प्रति उसके मन में आशा के नए दीप खिले ।

Comic World said...

शुक्रिया पीडी भाई । आपका स्वागत है ।

Comic World said...

Thanks Sharad Shrivastav Bhai and believe me all those films which we are discussing here are worth watching.Since i prefer to discuss on those movies which i had liked a great lot hence i can assure and recommend you to watch these movies which are being discussed here.

therunner said...

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nahlawat said...

just few days ago i watched this movie as this is one of the memorable movie of my childhood .
its hard hitting and somehow positive wish filmmakers still make these type of movies maybe today such movie will earn 100 crore

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