Saturday, November 10, 2012

# Shakti

शहर: बरेली,
ज़िला: उत्तर प्रदेश
22 सितम्बर सन 1982,सुबह के क़रीब 10 बजे
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शहर बरेली का सबसे बड़ा और सबसे भव्य थियेटर प्रभा टाकीज़ जो रामपुर गार्डन नामक पॉश कॉलोनी के नज़दीक स्थित है । आज इस टाकीज़ में पैर रखने तक को जगह नहीं है और हर तरफ़ सर ही सर नज़र आ रहे हैं । हर तरफ़ भीड़ ही भीड़ ।  बुकिंग विंडो,जहाँ टिकटें बांटी जाती है कब की बंद हो चुकी है लेकिन अब भी विंडो को घेरे कई लोग इस उम्मीद में खड़े हैं कि शायद विंडो दोबारा फिर खुलेगी । विंडो के नज़दीक एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ है जिसपर मोटे-मोटे अंग्रेज़ी के अक्षरों में लिखा है 'हॉउसफुल' जिसे देख कर टिकट खरीदने आने वाले दर्शक निराशा में सर हिलाते हुए वापस लौट रहे हैं ।  जिनको टिकट मिल चुके हैं वे चहरे पर प्रसन्नता और विजेता के से भाव लिए दूसरो को हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए घूम रहे हैं और जिनको टिकट नहीं मिले हैं वे बेचैनी के आलम में टिकटों की जुगाड़ में हड़बड़ाये इधर-उधर घूम रहे हैं । 

एक कोने में एक ब्लैकिया टिकट बेच रहा है जिसे घेर कर भीड़ खड़ी है । ब्लैकिया बड़ी दक्षता से एक हाथ में टिकटों को दबाये और दुसरे हाथ में नोटों को उँगलियों के बीच दबाये 'पाँच का बीस,पाँच का बीस' कहता हुआ टिकट बेच रहा है । भीड़ उससे मोलभाव कर रही है लेकिन वह बड़े तजुर्बेकार और घिसे हुए अंदाज़ में अपनी मांग से टस से मस नहीं हो रहा है । 

ब्लैकिया और उसे घेरे खड़ी भीड़ से थोड़ी दूर टाकीज़ के एक गेट के नज़दीक एक छह-सात साल का बच्चा दीवार के सहारे खड़ी साईकल पर बैठा हुआ उत्सुकता और आशा भरी से नज़रों से बार-बार मुंह उठा कर भीड़ की तरफ देख रहा है । थोड़ी देर में भीड़ से निकल कर एक युवक साइकिल की तरफ़ आता है जिसे देख कर बच्चा उत्सुकता भरे अंदाज़ में कहता है,"क्या हुआ मुख़्तार भाई टिकट मिला क्या?" । युवक ना में सर हिलाता है । बच्चे का सर लटक जाता है । "चलो वापस चलते हैं",युवक कहता है । साइकिल पर बैठकर दोनों वापस लौट जाते हैं लेकिन उसी दिन के दुसरे शो के लिए करीब 1 बजे दोनों फिर वापस लौटते हैं । युवक टिकट विंडो पर किसी राशन की दुकान पर लगी सर्प सरीखी लम्बी लाइन में लग जाता है और बच्चा साईकल की रखवाली करता हुआ उसपर बैठा हुआ इस बार टिकट मिल जाने की आशा मन में लिए हुए इंतज़ार करता है । युवक एक बार फ़िर टिकट विंडो से टिकट प्राप्त करने की जीतोड़ कोशिश करता है लेकिन इस बार भी उसके हाथ निराशा ही लगती है और दोनों को फिर मुंह लटकाए घर वापस लौटना पड़ता है ।

दोस्तों,उस प्रभा थियेटर में-जिसका नाम प्रभा टाकीज़ था-फ़िल्म 'शक्ति' लगी थी और वह बच्चा और कोई नहीं बल्कि खुद खाकसार था और आज की इस बज़्मे महफ़िल में हम तब्सिरा करेंगे फ़िल्म 'शक्ति' पर । 







दोस्तों,इससे पहले मैं फ़िल्म के बारे में बात करू मैं आपको बरेली प्रभा टाकीज़,जिसमे यह फ़िल्म अपनी रिलीज़ के वक़्त लगी थी,के बारे में बताना चाहूँगा । प्रभा टाकीज़ बरेली शहर का सबसे बड़ा,भव्य और विशाल टाकीज़ है जिसमे थियेटर हाल के अलावा बाहर भी काफी बड़ी जगह है । हर बड़ी और महत्वपूर्ण फ़िल्म के प्रदर्शन के लिए वितरक प्रभा टाकीज़ को ही चुनते थे और जब 'शक्ति' जैसी अति-महत्वपूर्ण और अति-प्रतीक्षित फ़िल्म के प्रदर्शन की बात हो तो प्रभा टाकीज़ के अलावा किसी और थियेटर का नाम कैसे ज़हन में आ सकता था । 
यही विशाल और भव्य प्रभा टाकीज़ उस दिन अन्दर से बाहर तक खचाखच भरा हुआ था यहाँ तक की सड़क तक भी भीड़ पहुंची हुई थी जिससे ट्रेफ़िक संचालन में भी दिक्कतें पैदा हो रही थी । कहने का मतलब यह है कि इस फ़िल्म के प्रदर्शन के पहले दिन फ़िल्म देखने के इस क़द्र की मारामारी थी कि बस पूछिए मत ! और हो भी क्यों न आखिर यह एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमे उस समय का सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और अभिनय की यूनिवर्सिटी समझे जाने वाले अदाकारी के सम्राट दिलीप कुमार पहली बार परदे पर एक साथ दिखाई देने जा रहे थे ।      






दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के एक साथ काम करने भर की खबर किसी भी फ़िल्म को महत्त्व,प्रतीक्षा और उम्मीदों की बुलंदियों पर पहुँचाने के लिए अपने आप में ही काफी थी और अगर उसमे सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी जैसे दिग्गजों का नाम भी शामिल हो जाये तो फ़िर हिंदी सिने दर्शकों की उम्मीदों और आशाओं को सातवें आसमान पर जा पहुँचने के लिए तो जैसे परों की भी ज़रूरत नहीं थी ।

'शक्ति' से जुडी हिमालय पहाड़ जैसी उम्मीदों और दूसरी बातों की बात तो हम करेंगे ही लेकिन आइये उससे पहले हम सिलसिलेवार ढंग से इस फ़िल्म पर तब्सिरा शुरू करते हैं इसके सीन दर सीन के साथ । 

फ़िल्म शुरू होती है जिसके पहले ही दृश्य में रमेश सिप्पी की फ़िल्म 'शोले' की तरह ही प्लेटफार्म दृश्य उभरता है जिसमे एक ट्रेन आकर रूकती है ।  ट्रेन से एक सजीला युवक(उस वक़्त मैंने भी अनिल कपूर का नाम तक नहीं सुना था) उतरता है जिसका उसका दादा(दिलीप कुमार) लेने आता है । 



    

घर पहुंचकर अनिल कपूर अपने दादा को अपने पुलिस में भर्ती होने के फैसले के बाबत बताता है । दादा दिलीप कुमार उसे इस नौकरी के दौरान आने वाली चुनौतियों और इम्तेहानों का हिम्मत से सामना करने की राय देता है ।  पोते अनिल द्वारा यह पूछे जाने पर,कि क्या उन्हें भी अपने नौकरी के दौरान किसी बड़े इम्तेहान से गुज़रना पड़ा था,दादा दिलीप कुमार की बूढी आँखों में नमी छा जाती है और शुरू होती है उस बड़े इम्तेहान की कहानी फ़्लैशबैक में ।




    


दृश्य तब्दील होता है और हम जवान दिलीप कुमार(इन्स्पेक्टर अश्विनी कुमार) को हस्पताल में फूलों का बुके लिए हुए अपनी पत्नी को देखने आता हुआ देखते हैं जिसने उनके बच्चे को जन्म दिया होता है ।  बाप बनने की ख़ुशी से उपजी हड़बड़ाहट और बच्चे को देखने की जल्दबाज़ी के चलते हस्पताल की नर्स को अपना परिचय ढंग से न दे पाने के चलते दिलीप कुमार पत्नी शीतल(राखी) से नर्स को समझाने की गुहार लगाते कहते हैं जो उनकी पुलिस की वर्दी के कारण उन्हें कुछ और ही समझ रही होती है । 

दिलीप बच्चे को किसी बच्चे सरीखी उत्सुकता से ही देखते हैं । "अरे,यह तो बहुत ही छोटा है ! ठीक तरह से दिखाई भी नहीं देता !",दिलीप पहली बार बाप बनने वाले किसी आदमी की सी भावविहलता और अज्ञानता से भरे लहज़े में कहते हैं जो उनकी बेमिसाल अदाकारी का एक छोटा सा नमूना पेश करता है । 

 अगले दृश्य में दिलीप और उनकी पत्नी राखी बच्चे के साथ एक ख़ुशी भरा गीत(माँगी थी एक दुआ जो क़ुबूल  हो गयी.....) गाते हुए दिखाए जाते हैं । संगीतकार आर.डी.बर्मन द्वारा इस गीत में महेंद्र कपूर को लिया गया है जो अगर रफ़ी जीवित होते तो उनके अलावा किसी और से गवाने का सोचा भी नहीं जाने वाला था ।


     

अगला दृश्य अश्विनी कुमार के एक सख्त,जाँबाज़,जियाले और फ़र्ज़ की खातिर अपनी जान तक की परवाह न करने वाले पुलिसकर्मी के किरदार को पुख्ता करता हुआ दिखाया जाता है जिसमे वह एक ऐसे मुजरिम को उसके गढ़ में घुसकर पकड़ लाने की ज़िम्मेदारी लेता है जिसका तीन साल से वारन्ट जारी होने के बाजवूद कोई गिरफ़्तार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था । 



      


दिलीप कुमार अपने मशहूर मैनेरिज्म,जिसमे बातों के दौरान बीच-बीच में माथे पर उँगलियों से खुजाना शामिल है,के मुज़ाहिरे के साथ 24 घंटों में उस मुजरिम को पकड़ लाने की ज़िम्मेदारी लेते हैं । 




    
दिलीप अकेले ही(सिपाही या और फ़ोर्स को साथ ले जाने की ज़रूरत क्यों नहीं समझी जाती?) उस मुजरिम यशवंत(गोगा कपूर) के गढ़ में घुस पड़ते हैं जहाँ उनका उनका बड़े अनचाहे और अनमने ढंग से स्वागत किया जाता है । 



   

एक अकेले पुलिस वाले को उसे गिरफ़्तार करने आने की जुर्रत देख कर ताक़त के मद में चूर यशवंत और उसके गुंडे अश्विनी कुमार पर टूट पड़ते हैं लेकिन अश्विनी कुमार सबकी धुनाई लगाकर यशवंत को गिरफ़्तार कर लेता है । 



  





यशवंत को छुड़ाने के लिए उसका बॉस जे.के(अमरीश पुरी) दिलीप कुमार के एकलौते बच्चे का अपहरण कर लेता है और फिरौती के तौर पर उससे यशवंत को छोड़ने की माँग रखता है । 







यह दृश्य जिसमे दिलीप कुमार को फ़ोन पर उसके बेटे के अपहरण और बदले में अपनी हिरासत के क़ैदी को छोड़ने की माँग रखे जाने के बाद परेशान दिलीप कुमार से जब राखी पूछती है कि क्या हुआ तो ज़रा दिलीप कुमार के जवाब देने के अंदाज़े-बयां पर गौर फरमाइए । "कमाल करती हो तुम,किसी का फ़ोन आ गया और तुम मान गयी कि...." | 
बात को सीधे और सामान्य तरीके से न कहकर दिलचस्प और घुमा कर कहना ही दिलीप कुमार जैसे अदाकार की जुमलेबाज़ी को विशिष्टता प्रदान करता है । 
यहाँ मैं यह सोच रहा हूँ कि क्या सलीम-जावेद ने इस संवाद को ठीक इसी तरह और इन्ही अल्फाज़ों में लिखा होगा या दिलीप कुमार ने अदा करते वक़्त उसमे अपनी तरफ़ से ऐसे चंद जुमले जोड़ दिए होंगे !     


   


खैर,दोबारा फ़ोन पर फ़िरौती की बाबत अपना अंतिम फ़ैसला सुनाते वक़्त जब दिलीप कुमार अपने फ़र्ज़ को जज़्बातों पर अहमियत देते हुए बदमाशों से कहता है कि,'मार डालो उसे,करो दो उसका खून। लेकिन मैं अपने फ़र्ज़ से गद्दारी नहीं करूँगा.....' तो बुरी तरह डरा और घबराया हुआ और अपने पिता से खुद को बचा लेने की तमाम उम्मीदें रखता हुआ उसका बेटा विजय(मास्टर रवि) सुन लेता है जिससे उसके बाल एवं कच्चे मन पर यह छाप बन जाती है कि उसका पिता उससे प्यार नहीं करता । 


       





मौका लगने पर बदमाशों के अड्डे पर से बच्चा भाग निकलता है जिसकी कोशिशों में जे.के का साथी नारंग(कुलभूषण खरबंदा) उसे देख कर भी अनदेखा कर देता है और भाग निकलने का मौका देता है ।



  


नन्हे विजय के मन में यह धारणा घर कर जाती है कि उसका पिता उससे प्यार नहीं करता और यही से शुरुआत होती है पिता-पुत्र के बीच की दूरी की जो समय के साथ-साथ खाई बन जाती है ।





मंज़र तब्दील होता है और विजय(अमिताभ बच्चन) अपने इन्ही ख्यालों में गुम जैकेट की जेबों में हाथ डाले सड़क पर पड़े हुए डिब्बे को ठोकर लगाते हुए(बचपन में इसी तरह कई सर्दी के शामों में जैकेट में हाथ डाले हुए मैंने भी सड़क पर पड़े हुए डिब्बों को खुद को अमिताभ समझते हुए ठोकरें लगाई हैं :-)) एक लोकल ट्रेन में सवार होता है जिसके उस तनहा डिब्बे में वह और एक लड़की होती है । 



     


डिब्बे में कुछ गुंडे भी चढ़ आते हैं जो अकेली लड़की को देख उससे छेड़खानी करते हैं । मशहूर हास्य अभिनेता सतीश शाह ने इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल से छेड़खानी करने वाले गुंडों के सरगना की भूमिका निभाई थी । सतीश शाह और छोटा सा गुंडे का रोल !! जी हाँ,सतीश उस टाइम तक कोई बड़ा नाम नहीं बने थे । 







अमिताभ द्वारा गुंडों की धुनाई लगाने और रोमा(स्मिता पाटिल) को उसके घर-जहां कि वह अनाथ होने की वजह से अकेली रहती है-छोड़ने जैसे कुछ दृश्यों के पश्चात् हमें पता चलता है कि उन गुंडों में से किसी ने विजय के खिलाफ रपट लिखा दी(कमाल है ! गुंडों ने अपनी गुंडागर्दी रोके जाने के खिलाफ पुलिस में रपट लिखा दी) है जिसके चलते उसे उसके पिता द्वारा पुलिस स्टेशन में तलब किया जाता है जहां पिता द्वारा यह पूछने पर कि अगर गुंडों ने उस लड़की को छेड़ा था तो तुमने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई,पर अमिताभ जवाब देता है कि उसे अपनी या किसी और की हिफाज़त कने के लिए पुलिस का कानून की मदद की ज़रूरत नहीं । 
उसकी यह बात सुनकर अवाक पिता जब यह मशवरा देता है कि कानून के बारे में इस किस्म के ख्यालात रखने पर वह आईन्दा किसी किस्म की मुश्किल में पड़ सकता है जिसे उसे याद रखना चाहिए तो बचपन की घटना से मन में पड़ चुकी गाँठ और दिल में बैठ चुकी ग़लतफ़हमी में मुब्तला विजय जवाब देता है,'मैं आपकी यह बात भी ध्यान रखूँगा' । जैसे कह रहा हो कि मैं आपकी बचपन में कही गयी और भी कड़वी बातों की तरह इस बात को भी ध्यान में रखूँगा ।





यह फ़िल्म का ऐसा पहला दृश्य था जिसमे अमिताभ और दिलीप कुमार का परदे पर आमना-सामना होता है । इस दृश्य में जहां दिलीप कुमार निहायत ही सहज महसूस होते हैं वहां अमिताभ किसी बंधन या किसी किस्म की जकड़न में प्रतीत होता है जोकि उसकी भूमिका के अनुरूप ही है जिसमे बचपन में मन में पड़ चुकी एक गाँठ के चलते वह कभी भी अपनी पिता के सामने सहज और अपनी भीतरी भावनाओं को सम्पूर्णता से पेश नहीं कर पाता है ।  

अमिताभ की भूमिका की इसी जकड़न और कशमकश को उसके आलोचकों ने उसकी इस किरदार को विस्फोटक ढंग से पेश न कर पाने की भूमिका जनित मजबूरी को उसकी कमज़ोरी के तौर पर पेश किया है जबकि अमिताभ की भूमिका उससे इसी प्रकार के जकड़े,बंधे हुए और अंडरप्ले करते हुए के से किरदार की तवक्को रखती थी जिसके मन में अपने पिता के प्रति शंका,शुबहा और ग़लतफ़हमी जैसी भावनाएं चलती रहती थी और जिनकी वजह से वह कभी भी अपने पिता के सामने अपनी भीतरी गहन भावनाओं और सवालों को खुल कर नहीं पेश कर सका ।       
  

खैर,आगे चलते हैं जिसमे हम देखते हैं कि विजय एक होटल में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाता है जिसका मालिक उसके बचपन के अपहरणकर्ता जे.के का उससे अलग हो चुका साथी और आज का दुश्मन के.डी.नारंग(कुलभूषण खरबंदा) है । 

ज़रा गौर फरमाइये इस दृश्य पर जिसमे अमिताभ जोकि एक बेरोज़गार नौजवान है किसी नौकरी का इंटरव्यू अपनी शर्ट के ऊपर के सारे बटन खोल कर देने आता है बिना किसी किस्म की औपचारिक ड्रेस पहने हुए ! सलीम-जावेद या रमेश सिप्पी से इस किस्म की चूक की तो उम्मीद नहीं की जाती थी ।




नारंग विजय को नौकरी दे देने की सिफ़ारिश करता है जिसकी वजह से उसे होटल में नौकरी मिल जाती है । लेकिन घर पर जब दिलीप कुमार को पता चलता है कि उसका,एक पुलिस अधिकारी का,बेटा एक स्मगलर के होटल में नौकरी करने जा रहा है तो वह उसे ऐसा करने को मना करता है जिसे न मानने पर वह विजय को घर से निकल जाने को कहता है । 





यह दूसरा दृश्य था जिसमे अमिताभ और दिलीप कुमार का परदे पर सामना होता है लेकिन इसमें भी पुत्र अमिताभ को पिता दिलीप की डांट का ही प्रसाद मिलता है जिसकी वजह से उसके मन में दूरियों की खाई कुछ और चौड़ी हो जाती है । 

अमिताभ घर छोड़कर रोमा के साथ रहने लगता है जहाँ उसकी माँ उसे लेने आती है और उसके मनाने पर वह अगले दिन घर वापस आने पर राज़ी भी हो जाता है । इस बीच नारंग के ऊपर हुए कातिलाना हमले-जोकि जे.के ने करवाया था-में विजय के बीच में आ जाने से नारंग की जान तो बच जाती है लेकिन जे.के अब उसे अपना दुश्मन मान कर उसे झूठे क़त्ल के इलज़ाम में फंसाने की तयारी कर लेता है । 


अगले दिन जब विजय घर आता है तो उसका सामना पिता से होता है । दिलीप के 'विजय' आवाज़ लगाने पर अमिताभ उसकी तरफ देखता है । पिता दिलीप की आँखों में बेटे के लिए स्नेह और शफ़क्कत के भाव हैं जिन्हें देख बेटे का भी गला भर आता है । और यह पहला ऐसा दृश्य है जिसमे पिता-पुत्र के बीच कठोर भावनाएं न होकर मौन स्निग्ध भावनाएं तैर रही होती हैं । 






बेटे की तरफ बढ़ते पिता दिलीप के चहरे पर आँखों की झपकन के साथ बयाँ होते हुए मूक स्नेह के भाव एक पल में आपको दिलीप कुमार नामक इस अदाकार की बेमिसाल अदाकारी के हुनुर का लोहा मानने पर मजबूर कर देते हैं । मात्र चहरे के भावों और आँखों के ज़रिये से इतने प्रभावशाली तरीके से भावनाओं का वर्णन शायद ही कोई दूसरा एक्टर इससे बेहतर तरीके से कर पाता हो । दिलीप कुमार को एक्टिंग स्कूल यूँ ही नहीं कहा जाता और यह दृश्य इसी कथन की तस्दीक करता है ।


मूक भावनाओं के प्रदर्शन का यह भावभीना दौर कुछ लम्हें ही चल पाता है जिसमे किसी गलत मौके पर और तकलीफ़देह तरीके से अश्विनी कुमार के अधीन एक इन्स्पेक्टर का आगमन होता है जो क़त्ल के इलज़ाम में अमिताभ को गिरफ़्तार करने आता है । जिसके बाद फ़र्ज़,कानून और निष्ठा के बेड़ी में जकड़ा हुआ पुलिस अधिकारी एक पिता के जज़्बातों पर काबिज़ हो जाता है और अपने सख्त एवं कायदे-कानून पसंद अधिकारी के खोल में बंद हो जाता है । 




     

यह दृश्य अगर बेटे विजय की भावनाओं को चोट पहुंचाता है तो सहानभूत दर्शकों को भी कम डिस्टर्ब नहीं करता जिसमे पिता-पुत्र के बीच इससे पहले सौम्य भावनाओं से ओत-प्रोत वाले दृश्य ने जब उनकी कोमल भावनाओं को सहलाना आरम्भ ही किया था कि इस दृश्य की क्रूरता और कठोरता से उनकी कोमल भावनाओं को अचानक आघात लगता है ।

हवालात में भी खुद को एक बाप की नहीं बल्कि पुलिस अफसर की हैसियत से पेश करने के अपने पिता के रवैये से बुरी तरह आहत और निराश विजय की जब नारंग ज़मानत देकर उसे ले जाने लगता है तब पिता दिलीप कुमार कहता है,'अपनी ज़िद में आकर इन लोगों के साथ किसी ऐसे रास्ते पर न निकल जाना जहाँ से अगर चाहो भी तो वापस न आ सको' ।  जिसपर विजय का यह जवाब,'मैं इस बार वापस आने के लिए नहीं जा रहा हूँ' उसकी विस्थापित मनोदशा को चिन्हित कर देता है ।







 तदोपरांत विजय कानून से नफरत के कारण नारंग के ग़ैरकानूनी धन्धे में शामिल हो जाता है जिसके बाद विजय और जे.के बीच घात-प्रतिघात का दौर शुरू हो जाता है । इन तमाम तनावपूर्ण दृश्यों की एक लम्बी कड़ी के बाद यह रोमातिक गीत परदे पर आता है जो दर्शकों को कुछ हलके-फुल्के क्षण मुहैय्या कराता है जो उनके भीतर लम्बे पनपते हुए तनाव को किसी प्रेशर कुकर की भांति रिलीज़ करने में सहायक सिद्ध होता है । 








    
अमिताभ और दिलीप कुमार के बीच तनातनी का अगला दृश्य तब आता है जब पिता दिलीप पुत्र अमिताभ को मिलने के लिए समुन्द्र किनारे बुलाता है । यह दृश्य हमें सलीम-जावेद द्वारा ही लिखित फ़िल्म 'दीवार' के उस मशहूर दृश्य की याद दिलाता है जब इन्स्पेक्टर भाई शशि कपूर को स्मगलर भाई अमिताभ एक पुल के नीचे मिलने बुलाता है । 
दिलीप कुमार के समक्ष पिछले दृश्यों में दबा-दबा सा रहने वाला पुत्र अमिताभ इस दृश्य में थोड़ा खुला सा और सहज दिखाई पड़ता है । 






दिलीप कुमार की आकर्षक अभिनय प्रतिभा के दर्शन हमें उस दृश्य में भी होते हैं जिसमे विजय से शादी कर चुकने के बाद उसके माता-पिता का आशीर्वाद लेने स्मिता पाटिल उनके घर आती है । एक अनजान लड़की को घर आये देख कर दिलीप के उससे सवाल करने पर कि वह कौन है स्मिता पाटिल जब थोड़ी हिचकिचाहट के बाद बताती है कि वह उनके बेटे की पत्नी है तो ससुर दिलीप का जवाब देखिये,'अजीब बेवकूफ़ लड़की हो,इतनी देर से आंय-बांय-शांय हांकती चली जा रही हो,साफ़ कहती क्यों नहीं कि तुम इस घर की बहु हो' । इस किस्म के संवाद बगैर दिलीप कुमार के खुद के सुझाव दिए बिना लिखे जाने की बहुत कम संभावनाएं लगती हैं । 




    

फ़िल्म का सबसे प्रभावशाली और असरदार दृश्य शायद वह सीन है जिसमे माँ राखी के मौत के बाद जेल में बंद पुत्र अमिताभ को उसके अंतिम दर्शन के लिए लाया जाता है । इस पूरे सीन में एक भी संवाद नहीं है सिर्फ़ मूक भावनाओं द्वारा ही पिता-पुत्र के जज़्बात ज़ाहिर किये जाते हैं । दरअसल,जब यह दृश्य लिखा गया था तो लेखक जावेद अख्तर के अनुसार इसमें पिता-पुत्र के बीच संवाद भी थे लेकिन जब दृश्य फ़िल्माने की बारी आई तो अब तक के रशेज़(फ़िल्म के शूट किये गए हिस्से) देखने पर निर्देशक रमेश सिप्पी और जावेद को महसूस हुआ कि यदि इस दृश्य को बिना संवादों के फ़िल्माया जाये तो सीन ज़्यादा ज़ोरदार तरीके से उभरकर आ सकता है ।



  

इसमें कोई शक नहीं है की 'शक्ति' पूरी तरह से दिलीप कुमार की ही फ़िल्म थी और वह क्यूँ थी इसपर हम आगे बात करेंगे लेकिन उससे पहले आइये हम एक और ऐसे दृश्य पर चर्चा कर लें जो दिलीप कुमार को बाक़ी तमाम अदाकारों से जुदा और तरजीह के क़ाबिल बनाता है । ज़रा याद कीजिये इस फ़िल्म का वह सीन जहाँ राखी बदमाशों की गोली का शिकार हो जाती है और पति दिलीप हस्पताल में जब उसकी  चादर से ढकी लाश को देखकर अपने जज़्बातों का इज़हार करता है ।




"डॉक्टर,हाथ तो गर्म हैं । अगर कुछ हो जाता तो हाथ गर्म नहीं होते डॉक्टर । आप लोग तो कुछ भी कह देते हैं ",पत्नी का हाथ पकडे हुए दिलीप कुमार के मुंह से अपनी पत्नी की मौत की शाश्वत सच्चाई में भी किसी चमत्कार की उम्मीद रखती आँसू भरी आँखों के साथ जब यह संवाद निकलते है तो समूचे थियेटर में शायद ही कोई दर्शक होगा जिसकी आँखे इस बेमिसाल अदाकारी को देख कर नम न हो गई हों । 


   

मुशीर आलम और मोहम्मद रियाज़ द्वारा निर्मित 'शक्ति' दरअसल शिवाजी गणेशन की एक तमिल फ़िल्म के मूल विचार पर आधारित थी जिसमे शिवाजी 
गणेशन ने एक ऐसे पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई थी जो अपने फ़र्ज़ की वेदी पर अपने पुत्र की बलि चढ़ाने से भी गुरेज़ नहीं करता । सलीम-जावेद द्वारा जब इस कहानी को लिखा जा रहा था तब पुत्र की भूमिका के लिए उनके ज़हन में कहीं से कहीं तक भी अमिताभ का ख्याल नहीं था । स्क्रिप्ट पूरी होने और दिलीप कुमार को पिता की भूमिका में अनुबंधित करने के बाद पुत्र की भूमिका के लिए उस समय के उभरते नवोदित सितारे राज बब्बर को लेने के बाबत गंभीरता से सोचा जा रहा था जब अमिताभ ने इस फ़िल्म की बाबत सुनकर अपने आराध्य दिलीप कुमार के साथ काम करने के इस सुनहरे मौके को लपकने में देर नहीं लगायी । 

बकौल,रमेश सिप्पी जब इस फिल्म की योजना बनी थी तब अमिताभ अपने सुनहरे कैरियर की चोटी पर थे जिसके चलते इस फ़िल्म में पुत्र की दोयम भूमिका निभाने के लिए उनके बारे में सोचा भी नहीं जा रहा था और अगर अमिताभ खुद इस फ़िल्म में काम करने की दिलचस्पी नहीं दिखाते तो उनके कद्दावर कद और आसमान से ऊँची लोकप्रियता के मद्देनज़र उन्हें 'शक्ति' की इस कदरन कमतर भूमिका ऑफर करने का भी किसी का साहस नहीं होता ।

फ़िल्म की कहानी सुनते वक़्त सलीम-जावेद द्वारा यह साफ़ ज़ाहिर कर दिया गया था कि 'शक्ति' पूरी तरह से दिलीप कुमार की फिल्म है और पुत्र की भूमिका पिता के मुक़ाबिल कम शेड्स लिए हुए है ।
इसलिए अमिताभ के आलोचकों का उन पर यह आरोप की फिल्म में वे दिलीप कुमार के सामने दबे-दबे से लगे हैं बेमानी है क्योंकि ऐसा परिलक्षित होना स्क्रिप्ट और किरदार की मांग थी । इसके अलावा अमिताभ के कई बेहतरीन दृश्य भी संपादन की भेंट चढ़ गए । वे तमाम दृश्य आज भी सिप्पी फिल्म्स के पास हैं जिन्हें अगर रमेश सिप्पी मूल फ़िल्म में जोड़कर तीस साल बाद दोबारा इस फिल्म को रिलीज़ करें तो दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के प्रशंसकों के लिए एक बहुत ही बड़ी और सुखद खुशखबरी होगी । 

खैर,आइये दोबारा फ़िल्म के बचे हुए शानदार दृश्यों पर परिचर्चा पर लौटते हैं जिसमे अंत में पुलिस अधिकारी पिता दिलीप कुमार द्वारा भागते हुए अपराधी पुत्र अमिताभ बच्चन को रोकने के लिए अपने फ़र्ज़ की पुकार पर गोली दागने का दृश्य है जो फ़िल्म 'मदर इंडिया' के माँ नर्गिस के डाकू पुत्र सुनील दत्त पर गोली चलाने से प्रेरित है । 

अपनी माँ की हत्या का बदला लेने के बाद विजय पिता दिलीप कुमार के रोकने पर रुकता नहीं है और एयरपोर्ट टर्मिनल पर भागता है ।  एअरपोर्ट टर्मिनल और लाउंज पर फिल्माये गए क्लाइमैक्स के इस दृश्य को बड़े रोमांचक तरीके से शूट किया गया है और जब हवाईपट्टी पर दौड़ते हुए बड़े-बड़े प्लेनों के बीच से होकर अमिताभ बचने के लिए दौड़ लगाता होता है तो देखते ही बनता है । 
अमिताभ वह वाहिद अदाकार है जो दौड़ते हुए बहुत खूबसूरत और रोमांचकारी लगता है । अगर यक़ीन न आये तो इस फ़िल्म के अलावा फ़िल्म 'दीवार' का वह दृश्य भी देख लीजियेगा जिसमे परवीन बाबी की हत्या का बदला लेने के बाद अमिताभ अपने इन्स्पेक्टर भाई शशि कपूर की पुलिस नाकाबंदी से बचने के लिए सड़कों पर दौड़ लगाता है या फिर फ़िल्म 'डॉन' के वे दृश्य याद कर लीजियेगा जिनमे अमिताभ आरम्भ में पुलिस इन्स्पेक्टर इफ़्तेख़ार से और बाद में पुलिस से बचने के लिए दौड़ लगाता है । 




       
  
पिता-पुत्र के बीच परस्पर स्नेह को दबाये रखने वाली संवादहीनता की दीवार पिता दिलीप कुमार द्वारा पुत्र अमिताभ पर चलायी गयी गोली के साथ धराशायी हो जाती है और पिता की गोद में दम तोड़ने से पहले पुत्र अमिताभ के मन अपने पिता के प्रति ग़लतफ़हमी की वह दीवार भी धराशायी हो जाती है जो अब तक उसे यह समझवाती आयी थी उसका पिता उससे प्यार नहीं करता ।



             



'ऐ आसमां बता क्या तुझको है खबर,ये मेरे चाँद को किसकी लगी नज़र,
                मुझसे कहाँ न जाने कोई भूल हो गई..........' 

पाशर्व में गूँजते गीत की इन पंक्तियों और पिता पुलिस अफसर की गोद में उसकी चलायी गयी गोली से हलाक अपराधी पुत्र की देह के साथ फ़्लैशबैक दिलीप कुमार की उन्ही बूढी आँखों पर ख़त्म होता है जहाँ से शुरू हुआ था । 





दादा द्वारा इस कड़े इम्तेहान से गुजरने की कहानी सुनने के बाद पोता अनिल कपूर पुलिस में भर्ती होने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होकर दादा से विदा लेता है । वृद्ध दिलीप कुमार उसे स्टेशन पर विदा करने आता है और चलते हुए टाईटिल्ज़ के साथ फ़िल्म ख़त्म होती है । 




   

'शक्ति' में हालाँकि सॉफ्ट और कोमल गीत-संगीत के लिए कोई ख़ास जगह नहीं थी लेकिन फिर भी संगीतकार आर.डी बर्मन द्वारा कम्पोज़ किये गए इसके तीनों गीत कर्णप्रिय हैं और खासकर के लता द्वारा गाया 'हमने सनम को ख़त लिखा,ख़त में लिखा...' और किशोर-लता के 'जाने कैसे कब कहाँ इकरार हो गया,हम सोचते ही रह गए और प्यार हो गया...' तो खासे मशहूर हुए थे । 
फ़िल्म का स्क्रीनप्ले और संवाद काफी भारी हैं जो फ़िल्म के अधिकांश भाग में तनाव और गंभीरता के करंट को किसी चालक की भांति गतिमान रखते हैं ।  फ़िल्म का मूड खासा संजीदा है जिसमे संजीदगी की बर्फ को तोड़ने के लिए बीच-बीच में कॉमेडी या गीतों के हलके-फुल्के 'ब्रेक्स' की ज़रूरत थी जो कम मिकदार में मुहैया होते हैं । 

1982 में प्रदर्शन के समय भले ही इस फ़िल्म ने अपेक्षित क़ामयाबी और कमाई न की हो लेकिन हिंदी फ़िल्म इतिहास में ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार और तत्कालीन सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के एक साथ काम करने से इस फ़िल्म का एक अलग ही मुक़ाम है जो इस फ़िल्म को अति-विशिष्ट और महत्वपूर्ण बनाता है । यह फ़िल्म उन क्लासिक और मील का पत्थर सरीखी फ़िल्मों की श्रेणियों में शामिल है जो भले ही बॉक्स ऑफिस पर उतनी कामयाब न हुई हों लेकिन चर्चा,महत्वता,आशाओं और ऐतिहासिकता के पैमाने पर नापे जाने पर इनका दर्जा किसी कोहिनूर हीरे से कमतर नहीं है या फ़िर इनकी कीमत और स्वाद उस पुरानी शराब की बोतल सरीखा है जिसकी कीमत और ज़ायका गुज़रते जाते समय के साथ बढ़ता ही जाता है । 

दोस्तों,यह थे फ़िल्म 'शक्ति' के बारे में खाकसार के ख्यालात और उनका निचोड़ था जिन्हें महज़ समीक्षा या अवलोकन कहकर लफ्ज़ी जामा नहीं पहनाया जा सकता । दरअसल यह खाकसार की इस फ़िल्म के बाबत अक़ीदत या उन यादगार और खुशगवार लम्हों का बदला चुकता करने का अवसर भर है जो लम्हे इस फ़िल्म और इससे जुडी यादों ने खाकसार को बख्शे और जिनको याद कर खाकसार उस सुनहरे बचपन और इस फ़िल्म से जुडी गुनगुनी यादों को याद कर उनकी सुखद गर्माहट का अहसास कर लेता है । 
इस पोस्ट पर काफी मेहनत और समय लगा है यदि आपको यह पोस्ट पसंद आई और आप आगे भी इस प्रकार की महफ़िलों का इंतेज़ाम बिलानागा होने देने के ख्वाहिशमंद हैं तो बराए मेहरबानी अपने ख्यालात,सुझाव,आलोचनाएं और प्रतिक्रियाएं-चाहें जैसी भी हों-ज़रुर हमारे साथ बाँटे ।               
                     

21 comments:

kuldeepjain said...

वाह ..वाह ..

Unknown said...


zaheer bhai just excellent. when you wrote that now you will discuss upon this film, I thought it will be a story of the film in short, but much to my surprise when i started reading it i found myself completely engrossed and after reading it completely i found myself as hypnotized. I do not hesitate to say that this is the first time that I like your review from the core of my heart and I can say Mazaa aa gaya. The best points were your comments with every scene of the film, they were really looked like coming from your heart. Like two friends are discussing the film among themselves. Jo aapke dil me hai wahi mere bhi dil me. Adbhut, I congratulate you on writing such a great review. For me whenever I will see Shakti again or if somebody will discuss the film with me I will remember your review. Sharad

kuldeepjain said...

जहीर भाई .. मेरा सबसे पहला कमेन्ट जो सिर्फ इस पोस्ट की तारीफ में में था वो कदरन छोटा था क्योकि उस वक़्त मैं सिर्फ 'सबसे पहले' कमेन्ट देने में अपनी हाजिरी देना चाहता था। आपके इस पोस्ट पर , आपकी जादुई लेखनी और करिश्माई प्रस्तुति पर कुछ कहना एक दुहराव होगा जो आप पहले भी सुन चुके है। इस पोस्ट को पढ़कर फिल्म ने तो नहीं पर कुछ प्रसंगों ने दिमाग में कई पुराणी यादो को को ताज़ा कर दिया और सोचा की उनही यादो को बाट लू।
सबसे पहले . . . कबूल करते दुःख तो होता है पर उस समय जिस वक़्त ये फिल्म आई थी तब तक अच्छी अदाकारी क्या होती है उसका अनुभव कुछ कम ही था क्योकि मार धाड़ , दिशुम दिशुम वाली फिल्मे उस समय जयादा प्रभावित करती थी और कोई ऐसी फिल्म जिसमे आपका पसंदीदा मार धाड़ करने वाला हीरो मर जाये वो कुछ कम ही पसंद आती थी . ये शायद एक वजह थी कि ये फिल्म दिल दिमाग पर वो जगह नहीं बना सकी। दूसरी बात .. बचपन का वो दिमाग पिता पुत्र के इतने संजीदे चित्रण को शायद उतनी संजीदगी से ले नहीं पाया। और आखरी बात ये की हेमा मालिनी जैसी गोरी चिट्टी अभिनेत्री को देखने के बाद स्मिता पाटिल जी जैसी सावली को अमिताभ के साथ देखना दिल को भारी भारी सा लगता था। ये तमाम बाते है की मैं जो अमिताभ की शोले , डॉन , शान, ग्रेट गैम्बलर जैसी फिल्मे कई कई बार देख चूका हु .. येह फिल्म शक्ति अब ये जानने के बाद भी की बेहतरीन अदाकारी का एक , फिल्म दुनिया में एक मील का पत्थर है मैंने अब तक दोबारा नहीं देखी।
मेरी कार में mp3 ऑडीओ के रूप में अमिताभ की काफी हिट फिल्मे डायलॉग के साथ है और फिल्म शक्ति की जो एकमात्र लिंक है वो है इस फिल्म का गाना "हमने सनम को ख़त लिखा " जिसके बोल , और लता जी की आवाज का संगम आज भी इस फिल्म के यादे ताज़ा कर देता है . . .

आगे और है . . .

Unknown said...

Kuldeep ji you have said correctly, ye sabhi filme bachpan me dekhi gayi thi jab man itna paripkav nahi tha, itni sanjeeda film ko samajh paane ki kshamta nahi thi, maar dhaad waali picturen achii lagti thi. aapne ekdum sahi kahaa, me ye baat mahsoos kar paata tha par shayad kaayde se samajh nahi paata tha. Thanks

Comic World said...

कुलदीप भाई आपकी कमेन्ट ने 1982 के मेरे बाल मन की मनोदशा को बिलकुल हुबहू रूप से चित्रित कर दिया है और अब मैं एक बार फ़िर से सोच रहा हूँ कि किसी चीज़ के बाबत दो लोगों के सोचने और महसूस करने का ढंग इतना यकसा कैसे हो सकता है !
जी हाँ,पहली बार 1982 में जब मैंने 'शक्ति' देखी थी तो मैं भी परदे पर सिर्फ़ मार-धाड़ के दृश्यों को तलाशता था । दिलीप कुमार का गोगा कपूर को गिरफ्तार करना या फिर अमिताभ का ट्रेन में स्मिता पाटिल को गुंडों से बचाना । मुझे इन्ही दृश्यों में आनंद आता था । ट्रेन के फाइट सीन में घूँसों की ट्रेडीशनल 'ढिशुम' के बजाये एक दूसरी अलग सी आवाज़ सुनकर मैं सोच में पड़ गया था कि अमिताभ ऐसी आवाज़ में घूँसे क्यों मार रहा है,वह 'शोले' या अपनी दूसरी फिल्मों की सी आवाज़ में क्यों नहीं मार रहा है ।
यदि मैं अपने उस समय के बाल मन के अनुसार कहूँ तो 'शक्ति' मुझे तब पसंद नहीं आई थी क्योंकि उसमे फाइट सीन्ज़ कम थे,घूंसों की आवाज़ ढिशुम-ढिशुम सरीखी नहीं थी और अमिताभ पूरी फ़िल्म में इतना दबा-दबा और चुप सा क्यों था । चूँकि,मैं उस समय तक दिलीप कुमार के तेज से वाकिफ नहीं था इसलिए यह सोच कर भी गुस्सा हो रहा था कि यह कैसा बाप है जो अपने बेटे की उसकी मुसीबतों में मदद भी नहीं करता । स्मिता पाटिल के बारे में मेरे ख्याल भी तब वही थे जो आपके थे कि इस काली-कलूटी सांवली सी हीरोइन को अमिताभ जैसे कलाकार की नायिका क्यों बना दिया गया । चूँकि,तब का बाल मन फ़िल्म की आत्मा और पिता-पुत्र के रिश्ते की संजीदगी को समझने में अक्षम था इसलिए मुझे यह फ़िल्म तब बहुत भारी-भारी सी और बोझिल लगी थी । राखी,जो तब कई फ़िल्मों में अमिताभ की नायिका का रोल भी कर चुकी थी उसको अमिताभ की माँ की भूमिका में देखना मेरे अपरिपक्व बाल मन को गवारा नहीं हो रहा था । कहने का मतलब यह है कि कुल मिलाकर तब ''शक्ति' मुझे कोई ऐसी कोई गैर मामूली फिल्म नहीं लगी थी जैसी तब के दौर में अमिताभ की और फिल्में लगा करती थीं ।
वो तो बाद में जब 16,17 साल की आयु में इस फिल्म को दोबारा देखने का मौका प्राप्त हुआ तब जाकर इस फ़िल्म के जद्दो-जलाल को सही प्रकार से समझ सकने की सलाहियत आई । उसके बाद से कई मर्तबा 'शक्ति' को देखा गया और समझा गया जिसकी परिणिति इस पोस्ट के रूप में जाकर हुई । आपसे भी गुज़ारिश है कि यदि आपने बचपन के बाद इस फ़िल्म नहीं देखा है तो एक बार दोबारा ज़रूर देखें क्योंकि मुझे यक़ीन है कि आपको इसमें मुतास्सिर करने वाले कई तत्व मिलेंगे

जितेन्द्र माथुर said...

बहुत खूब हसन भाई । मैंने यह फिल्म केवल एक ही बार देखी है मगर आपका आलेख पढ़कर लगा कि मुझे इसे दूसरी बार देखने का मौका मिल गया । आपके आलेख की तारीफ़ अलफ़ाज़ में करना मेरे लिए मुमकिन नहीं ।

जितेन्द्र

Comic World said...

शरद भाई इस पोस्ट को पसंद करने और अपनी बेशकीमती कमेन्ट देने के लिए शुक्रिया । मुझे यह देखकर ख़ुशी हुई की अमिताभ जैसे कलाकार और उसकी फ़िल्मों के बारे में आपके और मेरे विचारों में इस क़द्र की समानता है । अमिताभ की 70 और अस्सी के दशक की फ़िल्मों का खासतौर से मैं काफ़ी बड़ा प्रशंसक हूँ । काफी समय से अमिताभ की चुनिन्दा फ़िल्मों के बारे में तफ्सीली तब्सिरा करना चाह रहा था लेकिन कॉमिक्स और उपन्यासों की दुनिया में उलझ कर इस तरफ तवज्जो नहीं दे पाया था जो शायद लग रहा है कि अब दे पाउँगा । आगे कई इस तरह की फ़िल्मों पर तब्सिरा इसी महफ़िल में होने की उम्मीद है और चूँकि आप जैसे कद्रदानों के बिना इस किस्म की महफिलें अधूरी हैं इसलिए आपकी हाज़िरी की तवक्को मुझे हमेशा रहेगी ।

Comic World said...

जीतेन्द्र भाई बहुत शुक्रिया इन अल्फाज़ों के लिए । जब आप जैसा श्रेष्ठ लेखक और कलाकार मेरे लिए इस किस्म की बात कहता है तो मेरे अन्दर के हक़ीर और नर्वस लेखक का सीना कई गज़ चौड़ा हो जाता है ।

Comic World said...

Many thanks for such kind and encouraging words Anand Bhai.

Comic World said...

जीतेन्द्र भाई अगर सच पूछा जाये तो इस पोस्ट के प्रेणेता आप ही है क्योंकि वह आपका ही इस फ़िल्म का रिव्यू था जिसे ग्रुप पर पढ़ने के बाद मुझे महसूस हुआ कि इस ऐतिहासिक महत्त्व की अज़ीमुश्शान फ़िल्म पर उसी अज़ीमुश्शान तरीके का सम्मान देते हुए तब्सिरा किया जाये । और जिसके नतीजे में यह पोस्ट वजूद में आई ।

VISHAL said...

शहर बरेली : जिला उत्तर प्रदेश .......
एक मंझे हुए न्यूज़ रीडर की भांति आपने अपनी पोस्ट को शुरू से ही रोमांचक बना दिया , प्रभा टाकीज , यह प्रभा नाम से मुझे विद्या सिन्हा की "छोटी सी बात " याद आ गयी जिस में तिरछे नयनों वाली विद्या सिन्हा का नाम 'प्रभा' था शायद ;) बहरहाल क्या सजीव चित्रण किया है आपने 1982 के समय के फर्स्ट डे फर्स्ट शो का ! पांच का बीस पांच का बीस .... क्या बात है , इन टिकेट ब्लैक करने वालों का बोलने का एक अलग ही अंदाज होता था , धीमी और तीखी आवाज में बोलना , सभी का एक सा अंदाज , आमिर खान की रंगीला याद आ गयी
क्या आपको कभी सर्प सरीखे लाइन में फंस कर लाठियां भांझने के दृश्य से भी आमना सामना हुआ है , जब यह सर्प सरीखी लाइन की पूंछ टूट कर तितर बित्तर हो जाती थी :)
आपने थिएटर के बाहर का दृश्य तो दिखला दिया , लगे हाथ अन्दर का दृश्य भी दिखला देते की कैसे आधे लोग तो बिना चले ही अन्दर पहुँच जाते थे धक्के के रेलम पेल में फंस कर , बालकोनी के डार्क ब्राउन कलर के दरवाजे से छंट कर आती फिल्म की आवाज को गोर से सुनना और फिर फोल्डिंग सीटों की बडबडाहट , फिल्म की शुरुयात से पहले के वही चार पांच ad , (जिन्हें हम यह कहते थे की अभी 'मशहुरियाँ' चल रही हैं ) ad होते थे शायद विक्को वेजर् दंती के ..., मद्यान्तर में गोल्ड स्पॉट की बोतलों से चाबी की रगड़ से निकलने वाला मधुर संगीत टन टनाता हुआ .................
शक्ति फिल्म को न जाने में कितनी बार देख चुका हूँ , यह मेरी यादगार फिल्मों में से एक है , मुझे याद है जब मैं बेरोजगारी के लम्बे दौर से गुजरा था तो कैसे हताशा में जैकेट की जेबों में दोनों हाथ डाल कर कैसे सडकों पर फिरता था , और अमिताभ स्टाइल में ही कई खाली पड़े डबों को ठोकरें भी मरी हैं , तो कभी अर्जुन के सनी दियोल की तरह टाई को ढीला कर के घुमा , बाजुएँ फोल्ड कर के ...... शायद बेरोजगारी में सभी की मनोदशा ऐसी हो जाती होगी !
शक्ति फिल्म में जब भी दलीप कुमार और अमिताभ का आमना सामना हुआ तो बैकग्राउंड में एक वशिष्ट सा म्यूजिक बजता , जिसे मैंने किसी और फिल्म में नहीं सुना , सतीश शाह को मवाली छाप हरकतें करता देख और सिगरेट के धुंए के छल्ले रोमा बनी स्मिता पाटिल के मुंह पर फैंकते देखना आज काफी आश्चर्यचकित करता है , कहानी का सबसे ज्यादा दिल को छु लेने वाला दृश्य है जब अमिताभ अपनी माता के अंतिम दर्शन के वक़त अपने पिता की बाजु पर अपना हाथ रख कर आँखों में आंसू लिए अपने पिता की और देखता है , यह दृश्य मन ही मन रुला देता है , और रही बात अमिताभ के भागनें के दिलकश तरीके की तो जिस भी दृश्य में अमिताभ नें कोट डाल कर दौड़ लगायी है वो दृश्य तो बस एक अमिट छाप छोड़ देता है , इस फिल्म में जब 'हमनें सनम को ख़त लिखा ...' गाना शुरू होता है तो उसमें मुझे अमिताभ बच्चन का अपने मुंह पर हाथ रख कर रोमा को गाते हुए देखना थोड़ी सी हंसती आंखों के साथ .. काफी प्रभावशाली और रूमानी लगा
किसी भी फिल्म पर आपकी यह अब तक की सबसे बड़ी और विस्तृत पोस्ट है , जिसे आपने अपने विशिष्ट अंदाज में फिल्म के शुरू से लेकर अंत तक पूरा इन्साफ किया , आपको इस पोस्ट को पूरा करने में कितना वकत लगा यह भी बता दें

आपके दो शब्द जो मुझे हजम नहीं हुए (In Comment Section) :
(1) 'काली कलूटी ' (सांवली सलोनी ज्यादा सम्मानजनक शब्द है)
(2) 'कॉमिक्स की दुनिया में उलझ कर' (आपको कॉमिक्स की दुनिया कबसे उलझन भरी लगने लगी ? ताज्जुब है .... ! :(

Comic World said...

विशाल भाई आपका स्वागत है । क्या प्रभावशाली अंदाज़ में आपने अपनी आमद को पेश किया है ! भई वाह !! इससे पहले कि मैं आपकी इस दिलकश,इस गज़बनाक और इस प्रभावशाली कमेन्ट पर अपने विचार पेश करूँ मैं आपके द्वारा वाज़ेह किये गए ऐतराजों का जवाब देना चाहता हूँ ।
न.1- स्मिता पाटिल को काली कलूटी कहना मेरी उस वक़्त की मनोस्थिति और समझ के अनुरूप है जब 1982 में इस फ़िल्म को मैंने 6-7 साल की बाल उम्र में देखा था ।फ़िल्म में सिवाए अमिताभ बच्चन और राखी के मैं और किसी कलाकार को 'अच्छी' तरह से नहीं जानता था इसलिए बाक़ी किसी कलाकार पर मेरी इतनी तवज्जो गई भी नहीं । स्मिता पाटिल को मेरे द्वारा इस नाम से इंगित किये जाने के पीछे मेरी वही 7 साल के बच्चे की मानसिकता और समझ थी जिसका जिक्र मैंने उक्त कमेन्ट में किया था इसलिए उसे तब के मेरे बाल मन की नासमझी समझ कर ही ध्यान में लिए जाये न कि आज की मानसिकता के अनुरूप ।
न.2- विशाल भाई मेरे बाल मन पर हमला करने वाली प्रथम विधा फिल्में ही थीं क्योंकि फ़िल्में मैं तब से देख रहा हूँ जबसे मुझे पढ़ना भी नहीं आता था जबकि कॉमिक्सों से आशनाई तब से हुई जबसे मैंने पढ़ना सीखा । कॉमिक्सों की दुनिया में उलझने के बात को कृपया अन्यथा मत लीजिये क्योंकि रुचियों के सामायिक परिवर्तनों के कारण दिलचस्पियाँ किसी चरखी वाले झूले के मानिंद ऊपर नीचे होती रहती हैं । आज अगर फ़िल्मों का हिंडोला ऊपर है तो कल कोई दूसरा हिंडोला ऊपर आएगा लेकिन सभी हिंडोले रहेंगे झूले में ही ।
अब आते हैं आपकी शीरी कमेन्ट पर जिसने किसी सिनेमा हाल के बहार और भीतर दोनों के दृश्यों को जीवंत सा कर दिया हो । जी हाँ,टिकट की मारामारी के लिए लाइन में लगने और टिकट लेने की धक्कामुक्की के चलते खाकसार ने अपनी शर्ट तक फट्वायीं हैं और पुलिस की लाठियाँ भी खाई हैं । इन सब खट्टे-मीठे अनुभवों का जिक्र किसी और अनुरूप पोस्ट में करूँगा ही । 'शक्ति' में अमिताभ-दिलीप कुमार के साझा दृश्यों में उस विशिष्ट पाशर्व सिग्नेचर ट्यून को खाकसार ने भी नोट किया हुआ है ।
सिनेमा हाल के डार्क ब्राउन कलर के दरवाज़ों से छनकर आते फ़िल्म के संवादों को दरवाज़े से कान लगाकर सुनना,इंटरवल में सिनेमा कैंटीन के लड़के द्वारा कोल्ड ड्रिंक के बोतलों पर चाबी की रगड़ से पैदा होते संगीत का जिक्र कर आप मुझे बचपन की उसी सुहानी दुनिया में ले गए । बहुत खूब क्या दिल को छूने वाली कमेन्ट लिखी है आपने जिनका स्वागत मैं खड़े होकर हज़ार-हज़ार तालियों के साथ करना चाहता हूँ ।
यक़ीन जानिए आपकी ही तरह यह समस्त अनुभव मेरे भी साझा किये हुए हैं जिनका ज़िक्र मैं आगामी पोस्टों में करूँगा ही । आपसे गुज़ारिश है कि आपकी हौंसलाकुन हाज़िरी इसी तरह से इस बज़्म में बनाये रखें ।

Comic World said...

......हाँ विशाल भाई आपके एक सवाल का जवाब देना तो रह ही गया कि इस पोस्ट को लिखने में मुझे कितना वक़्त लगा ! विशाल भाई यह दूसरी ऐसी पोस्ट है जिसे पूरा करने में एक से ज़्यादा सिटिंग्स लगी हैं और इस पोस्ट को लिखने में तीन सिटिंग्स लगी थीं । कहने का मतलब है कि इस पोस्ट को तैयार करने में दो शामे और एक सुबह का पहला हिस्सा लगा था । सबसे ज़्यादा वक़्त लगा लिखने के साथ साथ फ़िल्म को देखते जाने और उसके मखसूस वांछित दृश्य को 'फ्रीज़' कर सेव करने में जिनको कहानी के साथ पोस्ट किया गया है ।

kuldeepjain said...

विशाल भाई ऐसा हमेशा हुआ है की अगर जहीर भाई ने किसी तस्वीर में यादो के सुनहरे रंग भरे है तो उन रंगों को चटकीला बनाने में आपने कोई कसर नहीं छोडी . फेंटा , विको वज्रदंती का जिक्र यकीन उन यादो को और रंगीन बना देता है जो उस समय हाल में फिल्म देखते समय जोड़े गए थे।
मुझे आज भी याद है के मेरे शहर रायगढ़ के रामनिवास टाकिज में फिल्म शक्ति लगी थी और दिलीप कुमार जी की बन्दुक हाथ में लिए हुए बड़ा सा पोस्टर टाकिज के मुख्य द्वार के सामने चस्पा था। अमिताभ की फिल्म आये और टाकिज में के सामने तक कम से कम 500 मीटर तक भीड़ का वो आलम होता था की कुछ गड़बड़ हो जाने का अंदेशा जरुर होता था। और उसी समय पुलिस की लाठी भांजती कवायद भी देखने को मिलती थी।
ऐसी भीड़ भाद में बालकनी में तो नहीं पर लोअर क्लास में टिकेट लेने के लिए जो मारामारी मचती थी वो एक दुर्लभ दृश्य होता था। पसीने से भीगा चेहरा, कपडे अस्त व्यस्त मगर टिकेट मिल जाने की ख़ुशी की चमक ऐसा संगम मैंने एक बेहद लम्बे अरसे से नहीं देखा। कुछ चेहरे जिनकी धुंदली याद अब भी ताज़ा है कि चाहे कितनी भी भीड़ हो टिकेट निकाल लाने में उनको महारत हासिल थी। कुछ पा न के अड्डे कुछ लोगो के खुफिया ठिकाने थे जहा से एअसे मौको पर टिकेट ब्लैक पर मिल जाया करती थी।

जैसा जहीर भाई मैंने कहा की उस समय कॉमिक पढ़कर मार धाड़ , यारी दोस्ती , शादी ब्याह वाली फिल्मे तो जम जाती थी पर इस पिता पुत्र के अनोखे रिश्ते को बयां करने वाली फिल्म की समझ बहुद बाद में आई। संजीदा अभिनय करने वाले एक्टर की असली कीमत बाद में ही पता चली। जैसे दिलीप कुमार जी के अभिनय का कायल मैं कर्मा में हुआ तो बलराज साहनी जी की अभिनय का लोहा कबूल फिल्म वक़्त देखकर ही हुआ। जरा याद करे फिल्म वक़्त का वो दृश्य जिसमे राजकुमार बलराज साहनी से कहते है कि "लाला जी अगर मैं आपको आपके बेटो से मिला दू तो आप मुझे क्या देंगे। " अरे मैं तेरा मुह मोतिओ से भर दूंगा , जीवन भर तेरी गुलामी करूँगा " .. भावप्रवण अभिनय की ऐसी मिसाल जो इस दृश्य में बलराज साहनी ने अपने हाव भाव और संवाद अदा एगी से दी है वो आज भी मेरी आँखे गीली कर देता है। वैसे ही फिल्म कर्मा में दिलीप कुमार जी का जलाल डाक्टर डेंग के साथ हुई टक्कर में खुल कर सामने आता है।

फिल्म शक्ति के सन्दर्भ में मेरे दोस्तों की जो याद जुडी हुई है वो है श्री मनोज मित्तल और अरुण गुप्ता और कुछ हद तक विनय अग्रवाल की . . . ये फिल्म देखने के बाद ये तीनो महानुभाव अमिताभ स्मिता पर फिल्माए अतरंग दृश्य ( बेहद छोटा पर स्कूल लाइफ के हिसाब से अति ) को चटकारे ले ले कर सुनाते घूम रहे थे कि अमिताभ ऐसा करता है .. वैसा करता है।। जबकि उस समय ऐसे दृश्य देखने से तौबा तौबा करनी पड़ती थी।



kuldeepjain said...

आप सबको और परिवार को दिवाली की बेहद बधाई

Unknown said...

अमिताभ का नाचने का अंदाज़ भी सबसे जुदा और सबसे आकर्षक ( मेरे लिए) था, सिर्फ गोविंदा को ही मैंने इस अंदाज़ में देखा है। अमिताभ नेचुरल डांसर नहीं हैं, उनकी अपनी हद है, लेकिन उन्ही हदों में रहते हुए उन्होंने कमाल का नृत्य किया है। इसमें में उनके एक खास अंदाज़ को जिम्मेदार मानता हूँ जिसकी वजह से उनका नृत्य इतना कमाल का लगता है और बार बार देखने का मन करता है अमिताभ हमेशा नाचते हुए मुस्कुराते है हँसते हैं, अपने डांस को एन्जॉय करते हैं। आप उनके डांसेज को याद कीजिये, एकदम स्लो मोशन का डांस, चेहरे पर हंसी, दोनों हाथ ऊपर, एक पैर कभी हवा मैं, कभी दूसरा। सिर्फ गोविंदा को मैंने और देखा जो हमेशा नाचते हुए हँसते रहते हैं पर गोविंदा परफेक्ट डांसर भी हैं। अभिनेत्रियों में माधुरी दीक्षित भी डांस करते हुए मुस्कुराती या हंसती हैं। मेरे विचार में यही मुस्कराहट अमिताभ के डांस में वो जादू पैदा करती है जिसके सभी दीवाने हुए . ज़हीर भाई ये मेरा आकलन है, आपका क्या ख्याल है .

Unknown said...

Vishal Ji thank you aapne bachpan ki yaaden ekdum jeevant kar di. Zaher bhai ke review ke baad aapki post padhna ekdum sone par suhaga wali baat ho gayi. Many thanks
Sharad

VISHAL said...

शरद श्रीवास्तव जी , यह तो ज़हीर भाई की लेखनी का कमाल है की मेरे अन्दर के जज्बात खुद ब खुद बाहर आ जाते हैं !
आप सब को दीपावली की बहुत बहुत शुबकामनाएं

Comic World said...

कुलदीप भाई,शरद भाई,आनंद भाई,विशाल भाई एवं सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ।

Toonfactory said...

Main haal hi ein apne ek mitr ke saath kahin jaa raha tha aur ek arsa hua hum Radio par Bollywood Badshah naam ka quiz show produce kiya karte the... Ab wo show to nahin hai albatta hum ek doosre se sawaal karke mann behlaa lete hain... Kisi Project ki babat baat chal rahi thi achanak usne Yusuf saahab ka dialogue 'itni door bhi naa chale jaana Vijay jahaan se wapas laut kar naa aa paao' wale dialogue ka zikr kiya aur humne uske baad kareeb ek ghante tak is film aur Trishul ki baatein ki... Shakti aur Parinda ye wo do filmein hain jinke kaayal mere saare dost hain par pata nahin kyon ye dono filmein meri fav. list mein aaj bhi jagah nahin bana paayi... Amitabh Bachchan ka fan hone ke naate maine ye film kareeb teen chaar baar to zaroor dekhi hogi... Magar kuchh ek behad powerful scenes ko chhod dein (jinka zikr aapne bhi yahaan kiya hai) to unke alawa mujhe ye film utni Shakti-shaali nahin lagi... Magar ab ye post dekh kar lagta hai DVD wapas lagani padegi... Aur ye jaadu sirf aapki kalam ka hai... Bade dino baad comment post kar raha hoon... Aapke page par aana jaana zara kum hua hoga magar post aapki ek bhi miss nahin ki hai... Aage bhi comments ke zariye apni upasthiti darz karane ki koshish karta rahunga...

Comic World said...

आलोक भाई आपका स्वागत है और इस दिलचस्प कमेन्ट के लिए शुक्रिया । अगर सच पूछा जाये तो 'शक्ति' जब मैंने पहली बार देखी तो मुझे यह कुछ ख़ास पसंद नहीं आई थी और बड़ी भारी और बोझिल फ़िल्म लगी थी । दरअसल उस समय अमिताभ का चरम दौर था और हम सब अमिताभ को ही फ़िल्म में रंग बिखेरते हुए देखना चाहते थे जिसकी वजह से फ़िल्म अमिताभ के प्रशंसकों की उम्मीदों पर खरी न उतरी । वो तो बाद में जब मुझे कई बार इस फ़िल्म को देखने का मौका मिला और जब इस पोस्ट के मद्देनज़र इसे खुर्दबीनी नज़र से देखा गया तब जाकर इसके कई नामालूम रंग सामने आये ।
अगर आप शक्ति को दिलीप कुमार की फ़िल्म समझ कर देखेंगे तो इसको ज्यादा अच्छे से एन्जॉय कर पाएंगे क्योंकि दरहकीक़त यह पिता के किरदार और उसके किरदार की गहराईयों को उकेरने और ग्लोरीफाई करने वाली ही फ़िल्म है । बाकी सारे किरदार तो पिता के किरदार को ऊंचाइयां प्रदान करने वाले किसी सपोर्ट सिस्टम सरीखे ही हैं ।

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Srinivas
Frank
Achala
Venkit