दोस्तों,इस ब्लॉग पर इतने तवील अरसे बाद हाज़िरी भरने के लिए आप सबसे मुआफ़ी की दरख्वास्त है । दरअसल हुआ यह था कि रुचियों के सामायिक परिवर्तनों के चलते ब्लॉग से तबियत उचटी और फेसबुक पर जा ठहरी जहाँ कुछ अरसे तक मशहूर लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब के कद्रदानों के बीच रहा.......कुछ उनकी सुनी और कुछ अपनी कही |
बहरहाल,एक बार फिर आप सबके बीच हाज़िर हूँ एक नयी पोस्ट लेकर जिसमे हम बात करेंगे एक ऐसी फ़िल्म की जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि वह तब थी जब बनी थी । यह एक ऐसी फिल्म है जो जितनी ईमानदारी से सवाल उठाती है उतने ही सशक्त ढंग से उनका जवाब भी देती है । यह एक ऐसी फिल्म है जो देखने वालों को झकझोर देती है और उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है । यह वह फिल्म है जो शायद आप में से ज़्यादा लोगों ने देखी न हो या शायद नाम भी न सुना हो और अगर ऐसा है तो यह वो फ़िल्म है जिसका नाम आपको मरने से पहले देखी जाने वाली फिल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल कर लेना चाहिए ।
दोस्तों,उस फ़िल्म का नाम है 'गर्म हवा' जो सन 1973 में प्रदर्शित हुई थी और जिसके मुख्य कलाकार थे 'बलराज साहनी,फारूख शेख़,गीता सिद्धार्थ,जलाल आग़ा,ए.के हंगल,युनुस परवेज़,जमाल हाशमी' इत्यादि ।
'गर्म हवा' की कहानी है हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उठने वाले उन सवालों की जो हिंदुस्तान में ही रह जाने वाले मुसलमानों के ज़हन में बंटवारे की बाद की परिस्थितियां उठाती है ।
कहानी शुरू होती है बंटवारे और उसके तदुपरांत होने वाली गाँधी जी की हत्या के बाद तकसीम हिंदुस्तान में बदलते हुए हालातों से जिसमे आगरे के एक जूता व्यापारी सलीम मिर्ज़ा(बलराज साहनी) के खानदान के सदस्य बदले हालातों के मद्देनज़र धीरे-धीरे पाकिस्तान रवाना होने लगते हैं लेकिन सीधा-सच्चा और ईमानदार सलीम मिर्ज़ा इस पलायन को उनका बेफिज़ूल का डर करार देते हुए हिंदुस्तान में ही रुकने का फैसला करता है जिसे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि हालात वाकई बदल चुके थे खासतौर से हिंदुस्तान में रह जाने मुसलमानों के लिए और इसका अहसास उसे आहिस्ता-आहिस्ता अपने साथ पेश होने वाले वाक्यातों की रू में तब होता है जब अपनी कारोबारी ज़रूरतों के मद्देनज़र उसका पुराना बैंक उसे लोन देने से इंकार महज़ इस डर की बिनाह पर कर देता है कि कहीं वह भी कुछेक और मुसलमानों की तरह कर्ज़ा लेकर पाकिस्तान भाग गया तो ।
कारोबारी मुश्किलात से जूझते सलीम मिर्ज़ा का बड़ा भाई हलीम मिर्ज़ा,जोकि मुस्लिम लीग का एक नेता भी था और जिसके नाम मिर्ज़ा बंधुओं की पुश्तैनी हवेली थी,बिना हवेली सलीम मिर्ज़ा के नाम लिखाये पाकिस्तान चला जाता है जिसकी वजह से हवेली पर कस्टोडियन का क़ब्ज़ा हो जाता है और सलीम मिर्ज़ा के परिवार को हवेली छोड़कर किराये के मकान में रहना पड़ जाता है । तकसीम हिंदुस्तान में सलीम मिर्ज़ा को एक किराये का मकान हासिल करने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं । कितनी ही जगह उसे महज़ इसलिए मकान देने से इंकार किया जाता है क्योंकि वह एक मुसलमान है, मिर्ज़ा को समझ नहीं आता है कि कैसे वह अपने ही वतन में अछूत समझा जाने लगा है ।
मिर्ज़ा की घरेलु ज़िदगी भी बंटवारे की आग से अछूती नहीं रह पाती जब उसका भतीजा और उसकी बेटी का मंगेतर भी अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चला जाता है जहाँ बदले हुए हालातों के मद्देनज़र उसकी बेटी का रिश्ता बना नहीं रह पाता । हालाँकि,मंगेतर पाकिस्तान से भाग कर मिर्ज़ा के घर शादी करने आता है लेकिन उसके इस गैर कानूनी आगमन की खबर लगते ही पुलिस द्वारा उसे वापस पाकिस्तान भेज दिया जाता है । मिर्ज़ा की बेटी आमिना(गीता सिद्दार्थ) कैसे न कैसे इस गम को बर्दाश्त कर जाती है और अपने पीछे पड़े शमशाद(जलाल आगा) की शादी के लिए मिन्नतें-समाजत कुबूल कर लेती है । शमशाद का निवेदन कुबूल करने वाला दृश्य और उसमे फिल्माई गयी क़व्वाली बेहद प्रभावशाली है ।
अज़ीज़ अहमद खान वारसी और समूह द्वारा गाई गयी क़व्वाली 'आक़ा सलीम चिश्ती,मौला सलीम चिश्ती........' में व्यथित और चोटिल आमिना के संतप्त हृदय की पीड़ा को जैसे स्वर मिल गए हो ।
जब शमशाद का परिवार भी आमिना को ठुकरा देता है तब आमिना दोबारा दिल टूटने के गम को बर्दाश्त नहीं कर पाती है और मौत को गले लगा लेती है ।
आज़ाद लेकिन तकसीम हिंदुस्तान में और कई समस्याओं के साथ बेरोज़गारी की समस्या भी मुंह उठाये आन खड़ी होती है जिसका शिकार मिर्ज़ा का छोटा बेरोज़गार बेटा सिकंदर(फारुख शेख) भी बनता है जो हिंदुस्तान में अपने मुस्तकबिल को लेकर फिक्रमंद एवं भेदभाव और सिफ़ारिशवाद के माहौल से आजिज़ होने लगता है ।
जूता व्यापारियों की नवगठित यूनियन की बेमानी हड़ताल में उनका साथ न देने के कारण यूनियन द्वारा मिर्ज़ा के बहिष्कार से उपजी परेशानियों के चलते कारोबार की पतली होती हालत से घबराकर मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेता है । एकदम अकेले रह गए सलीम मिर्ज़ा के लिए हालात दुष्कर और कठिन बनते जा रहे थे और आमिना के मौत के बाद तो जैसे उनकी रही-सही हिम्मत भी टूट जाती है और वे भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेते हैं ।
जब मिर्ज़ा अपने बेटे और बीवी के साथ अनमने और बेमन से तांगे पर बैठकर स्टेशन जा रहे होते हैं तो रास्ते में बेरोजगार नौजवानों का समूह अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहा होता है जिसे देख कर सिकंदर में एकाएक जोश जागता है और वह भी उस प्रदर्शन में शामिल हो जाता है और अन्तत: सर हिलाते हुए सलीम मिर्ज़ा भी अपने पुराने तांगे वाले को वापस घर चलने के लिए कहते हैं ।
'गर्म हवा' जहाँ एक ओर बँटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों की परेशानियों,तकलीफों और दुश्वारियों का ईमानदाराना चित्रण करती है वहीँ दूसरी ओर उन्हें हालात से घबरा कर पलायन करने के बजाय डटकर हालात से मुकाबला करने का यथायार्थवादी और व्यावहारिक सुझाव भी देती है ।
'गर्म हवा' उन फ़िल्मों में से है जो बँटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों के सांप्रदायिक द्वेष,घृणा और नफरत के माहौल में अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद,पीढ़ा,व्यथा,तरद्दुद और मुश्किलात को निहायत ही संजीदगी,ईमानदारी और सच्चाई से बयान करती हैं ।
बँटवारे से जन्मी कौमी और मज़हबी नफरत की आग में झुलसा एक आम मुसलमान कैसे अपने ही शहर में अजनबी और अछूत समझा जाने लगता है,कैसे उसका कारोबार तिनके-तिनके होकर बिखरने लगता है,कैसे उसपर और उसके परिवार पर मुसीबतें टूटती हैं,कैसे उसे अपनी मिटटी से ही पराया कर देने की कोशिशें की जाती हैं और कैसे वह इन सब से लड़कर उनका मुकाबला करता है इन्ही सब का ईमानदाराना चित्रण 'गर्म हवा' हैं ।
सलीम मिर्ज़ा की भूमिका निभाने वाले 'बलराज साहनी' अपनी इस आखिरी फिल्म में एक बार फिर 'दो बीघा ज़मीन' सरीखा ही अभिनय पेश कर जाते हैं । एक ईमानदार वतनपरस्त मुस्लिम की भूमिका में बलराज अपने सहज अभिनय के बल पर सलीम मिर्ज़ा के पात्र को जैसे जीवंत कर देते हैं ।
आमिना की भूमिका निभाने वाली 'गीता' जिन्होंने बाद में फ़िल्म 'डिस्को डांसर' में मिथुन की माँ की भूमिका की थी अपने कैरियर का सबसे महत्वपूर्ण रोल इस फिल्म में निभाती हैं । उस दौर की मध्यम वर्ग की एक आम मुस्लिम लड़की जिसके लिए विवाह ही उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है और उसमे वह अगर दो-दो बार धोखा खा जाये तो उसके दिल की हालत क्या होती है गीता उसको बखूबी पेश करती हैं ।
बाक़ी कलाकारों में सलीम मिर्ज़ा की पत्नी की भूमिका निभाने वाली 'शौक़त कैफ़ी',सलीम मिर्ज़ा के मतलबपरस्त रिश्तेदार की भूमिका में युनुस परवेज़,भतीजे की भूमिका में जमाल हाश्मी,सिन्धी व्यापारी की भूमिका में ए.के.हंगल,तांगे वाले की भूमिका में विकास आनंद,शमशाद की भूमिका में जलाल आग़ा आदि सभी अपनी-अपनी भूमिका से साथ पूरा न्याय करते हैं । फारुख शेख की यह पहली फिल्म थी जिसमे बेरोजगार युवा मुस्लिम लड़के की भूमिका वे बखूबी निभा ले जाते हैं । एकदम युवा फारुख को फ़िल्मी परदे पर देखकर अच्छा लगता है ।
इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित इस फिल्म को लिखने वाले कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी कहानी के मानवीय पक्ष और भावनाओं का पूरा-पूरा और सूक्ष्म ध्यान रखते हैं । ज़रा याद कीजिये वह दृश्य जब मिर्ज़ा परिवार अपनी हवेली छोड़कर जा रहा है तो मिर्ज़ा की बूढी माँ अपना घर छोड़कर जाने को राज़ी नहीं होती है और एक कोठरी में छुपकर बैठ जाती है ।
उससे पहले का वह दृश्य भी याद कीजिये जिसमे जब हवेली को खाली करने का मिर्ज़ा परिवार को कस्टोडियन का नोटिस मिलता है तो बूढी माँ कहती है,'मैंने तो दो ही बेटे जने थे,यह कमबख्त तीसरा कौन आ गया?'
तदोपरांत,तबियत ख़राब होने पर मरने से पहले बूढी माँ को जब उसकी पुश्तैनी हवेली में वापस लाया जाता है तो उसके चेहरे पर कैसे ख़ुशी के भाव होते हैं और जहां वह चैन से प्राण त्याग पाती है ।
फ़िल्म का कला पक्ष निहायत ही सबल है । कहानी,स्क्रीनप्ले एवं संवाद बेहद ही मर्मस्पर्शी और प्रासंगिक हैं जिसके लिये कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी ज़िम्मेदार हैं । फिल्म की शूटिंग स्टूडियो में न होकर असली लोकेशनों पर की गयी है जिसके चलते फिल्म के दृश्यों इतने असरदार बन पाए हैं । मिर्ज़ा की हवेली,उसका कारखाना,उसका किराये का मकान कुछ भी बनावटी नहीं लगता हैं । एम.एस.सथ्यु का कुशल एवं चुस्त निर्देशन इस फिल्म को उन ऊँचाईयों पर ले जाता है जहां इसे क्लासिक और कालजयी फ़िल्मों के फ़ेहरिस्त में शामिल होने का मौका मिलता है ।
यदि आपको सार्थक,मनोरंजक और सोचने पर मजबूर करने वाली हिंदी फ़िल्में देकने का ज़रा सा भी शौक़ है और अगर आपने 'गर्म हवा' नहीं देखी है तो आपको बिना किसी किस्म की देर करते हुए पहली फ़ुर्सत में ही इस फिल्म को देखना चाहिए ।
यह पोस्ट आपको कैसी लगी बताना मत भूलियेगा और अगर आप चाहते हैं कि हम आगे भी ऐसी ही अच्छी,बेहतर और सार्थक हिंदी फ़िल्मों पर तब्सिरे करते रहे तो अपनी प्रतिक्रिया ,सुझाव,आलोचना, विचार अवश्य ही यहाँ बाँटें ।
बहरहाल,एक बार फिर आप सबके बीच हाज़िर हूँ एक नयी पोस्ट लेकर जिसमे हम बात करेंगे एक ऐसी फ़िल्म की जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि वह तब थी जब बनी थी । यह एक ऐसी फिल्म है जो जितनी ईमानदारी से सवाल उठाती है उतने ही सशक्त ढंग से उनका जवाब भी देती है । यह एक ऐसी फिल्म है जो देखने वालों को झकझोर देती है और उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है । यह वह फिल्म है जो शायद आप में से ज़्यादा लोगों ने देखी न हो या शायद नाम भी न सुना हो और अगर ऐसा है तो यह वो फ़िल्म है जिसका नाम आपको मरने से पहले देखी जाने वाली फिल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल कर लेना चाहिए ।
दोस्तों,उस फ़िल्म का नाम है 'गर्म हवा' जो सन 1973 में प्रदर्शित हुई थी और जिसके मुख्य कलाकार थे 'बलराज साहनी,फारूख शेख़,गीता सिद्धार्थ,जलाल आग़ा,ए.के हंगल,युनुस परवेज़,जमाल हाशमी' इत्यादि ।
'गर्म हवा' की कहानी है हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उठने वाले उन सवालों की जो हिंदुस्तान में ही रह जाने वाले मुसलमानों के ज़हन में बंटवारे की बाद की परिस्थितियां उठाती है ।
कहानी शुरू होती है बंटवारे और उसके तदुपरांत होने वाली गाँधी जी की हत्या के बाद तकसीम हिंदुस्तान में बदलते हुए हालातों से जिसमे आगरे के एक जूता व्यापारी सलीम मिर्ज़ा(बलराज साहनी) के खानदान के सदस्य बदले हालातों के मद्देनज़र धीरे-धीरे पाकिस्तान रवाना होने लगते हैं लेकिन सीधा-सच्चा और ईमानदार सलीम मिर्ज़ा इस पलायन को उनका बेफिज़ूल का डर करार देते हुए हिंदुस्तान में ही रुकने का फैसला करता है जिसे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि हालात वाकई बदल चुके थे खासतौर से हिंदुस्तान में रह जाने मुसलमानों के लिए और इसका अहसास उसे आहिस्ता-आहिस्ता अपने साथ पेश होने वाले वाक्यातों की रू में तब होता है जब अपनी कारोबारी ज़रूरतों के मद्देनज़र उसका पुराना बैंक उसे लोन देने से इंकार महज़ इस डर की बिनाह पर कर देता है कि कहीं वह भी कुछेक और मुसलमानों की तरह कर्ज़ा लेकर पाकिस्तान भाग गया तो ।
कारोबारी मुश्किलात से जूझते सलीम मिर्ज़ा का बड़ा भाई हलीम मिर्ज़ा,जोकि मुस्लिम लीग का एक नेता भी था और जिसके नाम मिर्ज़ा बंधुओं की पुश्तैनी हवेली थी,बिना हवेली सलीम मिर्ज़ा के नाम लिखाये पाकिस्तान चला जाता है जिसकी वजह से हवेली पर कस्टोडियन का क़ब्ज़ा हो जाता है और सलीम मिर्ज़ा के परिवार को हवेली छोड़कर किराये के मकान में रहना पड़ जाता है । तकसीम हिंदुस्तान में सलीम मिर्ज़ा को एक किराये का मकान हासिल करने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं । कितनी ही जगह उसे महज़ इसलिए मकान देने से इंकार किया जाता है क्योंकि वह एक मुसलमान है, मिर्ज़ा को समझ नहीं आता है कि कैसे वह अपने ही वतन में अछूत समझा जाने लगा है ।
मिर्ज़ा की घरेलु ज़िदगी भी बंटवारे की आग से अछूती नहीं रह पाती जब उसका भतीजा और उसकी बेटी का मंगेतर भी अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चला जाता है जहाँ बदले हुए हालातों के मद्देनज़र उसकी बेटी का रिश्ता बना नहीं रह पाता । हालाँकि,मंगेतर पाकिस्तान से भाग कर मिर्ज़ा के घर शादी करने आता है लेकिन उसके इस गैर कानूनी आगमन की खबर लगते ही पुलिस द्वारा उसे वापस पाकिस्तान भेज दिया जाता है । मिर्ज़ा की बेटी आमिना(गीता सिद्दार्थ) कैसे न कैसे इस गम को बर्दाश्त कर जाती है और अपने पीछे पड़े शमशाद(जलाल आगा) की शादी के लिए मिन्नतें-समाजत कुबूल कर लेती है । शमशाद का निवेदन कुबूल करने वाला दृश्य और उसमे फिल्माई गयी क़व्वाली बेहद प्रभावशाली है ।
अज़ीज़ अहमद खान वारसी और समूह द्वारा गाई गयी क़व्वाली 'आक़ा सलीम चिश्ती,मौला सलीम चिश्ती........' में व्यथित और चोटिल आमिना के संतप्त हृदय की पीड़ा को जैसे स्वर मिल गए हो ।
जब शमशाद का परिवार भी आमिना को ठुकरा देता है तब आमिना दोबारा दिल टूटने के गम को बर्दाश्त नहीं कर पाती है और मौत को गले लगा लेती है ।
आज़ाद लेकिन तकसीम हिंदुस्तान में और कई समस्याओं के साथ बेरोज़गारी की समस्या भी मुंह उठाये आन खड़ी होती है जिसका शिकार मिर्ज़ा का छोटा बेरोज़गार बेटा सिकंदर(फारुख शेख) भी बनता है जो हिंदुस्तान में अपने मुस्तकबिल को लेकर फिक्रमंद एवं भेदभाव और सिफ़ारिशवाद के माहौल से आजिज़ होने लगता है ।
जूता व्यापारियों की नवगठित यूनियन की बेमानी हड़ताल में उनका साथ न देने के कारण यूनियन द्वारा मिर्ज़ा के बहिष्कार से उपजी परेशानियों के चलते कारोबार की पतली होती हालत से घबराकर मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेता है । एकदम अकेले रह गए सलीम मिर्ज़ा के लिए हालात दुष्कर और कठिन बनते जा रहे थे और आमिना के मौत के बाद तो जैसे उनकी रही-सही हिम्मत भी टूट जाती है और वे भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेते हैं ।
जब मिर्ज़ा अपने बेटे और बीवी के साथ अनमने और बेमन से तांगे पर बैठकर स्टेशन जा रहे होते हैं तो रास्ते में बेरोजगार नौजवानों का समूह अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहा होता है जिसे देख कर सिकंदर में एकाएक जोश जागता है और वह भी उस प्रदर्शन में शामिल हो जाता है और अन्तत: सर हिलाते हुए सलीम मिर्ज़ा भी अपने पुराने तांगे वाले को वापस घर चलने के लिए कहते हैं ।
'गर्म हवा' जहाँ एक ओर बँटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों की परेशानियों,तकलीफों और दुश्वारियों का ईमानदाराना चित्रण करती है वहीँ दूसरी ओर उन्हें हालात से घबरा कर पलायन करने के बजाय डटकर हालात से मुकाबला करने का यथायार्थवादी और व्यावहारिक सुझाव भी देती है ।
'गर्म हवा' उन फ़िल्मों में से है जो बँटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों के सांप्रदायिक द्वेष,घृणा और नफरत के माहौल में अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद,पीढ़ा,व्यथा,तरद्दुद और मुश्किलात को निहायत ही संजीदगी,ईमानदारी और सच्चाई से बयान करती हैं ।
बँटवारे से जन्मी कौमी और मज़हबी नफरत की आग में झुलसा एक आम मुसलमान कैसे अपने ही शहर में अजनबी और अछूत समझा जाने लगता है,कैसे उसका कारोबार तिनके-तिनके होकर बिखरने लगता है,कैसे उसपर और उसके परिवार पर मुसीबतें टूटती हैं,कैसे उसे अपनी मिटटी से ही पराया कर देने की कोशिशें की जाती हैं और कैसे वह इन सब से लड़कर उनका मुकाबला करता है इन्ही सब का ईमानदाराना चित्रण 'गर्म हवा' हैं ।
सलीम मिर्ज़ा की भूमिका निभाने वाले 'बलराज साहनी' अपनी इस आखिरी फिल्म में एक बार फिर 'दो बीघा ज़मीन' सरीखा ही अभिनय पेश कर जाते हैं । एक ईमानदार वतनपरस्त मुस्लिम की भूमिका में बलराज अपने सहज अभिनय के बल पर सलीम मिर्ज़ा के पात्र को जैसे जीवंत कर देते हैं ।
आमिना की भूमिका निभाने वाली 'गीता' जिन्होंने बाद में फ़िल्म 'डिस्को डांसर' में मिथुन की माँ की भूमिका की थी अपने कैरियर का सबसे महत्वपूर्ण रोल इस फिल्म में निभाती हैं । उस दौर की मध्यम वर्ग की एक आम मुस्लिम लड़की जिसके लिए विवाह ही उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है और उसमे वह अगर दो-दो बार धोखा खा जाये तो उसके दिल की हालत क्या होती है गीता उसको बखूबी पेश करती हैं ।
बाक़ी कलाकारों में सलीम मिर्ज़ा की पत्नी की भूमिका निभाने वाली 'शौक़त कैफ़ी',सलीम मिर्ज़ा के मतलबपरस्त रिश्तेदार की भूमिका में युनुस परवेज़,भतीजे की भूमिका में जमाल हाश्मी,सिन्धी व्यापारी की भूमिका में ए.के.हंगल,तांगे वाले की भूमिका में विकास आनंद,शमशाद की भूमिका में जलाल आग़ा आदि सभी अपनी-अपनी भूमिका से साथ पूरा न्याय करते हैं । फारुख शेख की यह पहली फिल्म थी जिसमे बेरोजगार युवा मुस्लिम लड़के की भूमिका वे बखूबी निभा ले जाते हैं । एकदम युवा फारुख को फ़िल्मी परदे पर देखकर अच्छा लगता है ।
इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित इस फिल्म को लिखने वाले कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी कहानी के मानवीय पक्ष और भावनाओं का पूरा-पूरा और सूक्ष्म ध्यान रखते हैं । ज़रा याद कीजिये वह दृश्य जब मिर्ज़ा परिवार अपनी हवेली छोड़कर जा रहा है तो मिर्ज़ा की बूढी माँ अपना घर छोड़कर जाने को राज़ी नहीं होती है और एक कोठरी में छुपकर बैठ जाती है ।
उससे पहले का वह दृश्य भी याद कीजिये जिसमे जब हवेली को खाली करने का मिर्ज़ा परिवार को कस्टोडियन का नोटिस मिलता है तो बूढी माँ कहती है,'मैंने तो दो ही बेटे जने थे,यह कमबख्त तीसरा कौन आ गया?'
तदोपरांत,तबियत ख़राब होने पर मरने से पहले बूढी माँ को जब उसकी पुश्तैनी हवेली में वापस लाया जाता है तो उसके चेहरे पर कैसे ख़ुशी के भाव होते हैं और जहां वह चैन से प्राण त्याग पाती है ।
फ़िल्म का कला पक्ष निहायत ही सबल है । कहानी,स्क्रीनप्ले एवं संवाद बेहद ही मर्मस्पर्शी और प्रासंगिक हैं जिसके लिये कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी ज़िम्मेदार हैं । फिल्म की शूटिंग स्टूडियो में न होकर असली लोकेशनों पर की गयी है जिसके चलते फिल्म के दृश्यों इतने असरदार बन पाए हैं । मिर्ज़ा की हवेली,उसका कारखाना,उसका किराये का मकान कुछ भी बनावटी नहीं लगता हैं । एम.एस.सथ्यु का कुशल एवं चुस्त निर्देशन इस फिल्म को उन ऊँचाईयों पर ले जाता है जहां इसे क्लासिक और कालजयी फ़िल्मों के फ़ेहरिस्त में शामिल होने का मौका मिलता है ।
यदि आपको सार्थक,मनोरंजक और सोचने पर मजबूर करने वाली हिंदी फ़िल्में देकने का ज़रा सा भी शौक़ है और अगर आपने 'गर्म हवा' नहीं देखी है तो आपको बिना किसी किस्म की देर करते हुए पहली फ़ुर्सत में ही इस फिल्म को देखना चाहिए ।
यह पोस्ट आपको कैसी लगी बताना मत भूलियेगा और अगर आप चाहते हैं कि हम आगे भी ऐसी ही अच्छी,बेहतर और सार्थक हिंदी फ़िल्मों पर तब्सिरे करते रहे तो अपनी प्रतिक्रिया ,सुझाव,आलोचना, विचार अवश्य ही यहाँ बाँटें ।
14 comments:
ज्ञानवर्द्धक ..
लिखते रहें ..
देर आये दुरस्त आये दोस्त. बढ़िया पोस्ट.
ज़हीर भाई, बहुत बहुत आभार इस बेशकीमती पोस्ट के लिए. एम. एस. सथ्यू की "गर्म हवा" मेरी पसंदीदा फिल्मों में से है, और ये मेरी बार - बार देखी जाने वाली फिल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल है. जैसा कि आपने कहा, ये फिल्म बँटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों की दुश्वारियों का ईमानदाराना चित्रण करती है और बलराज साहनी ने अपने मंझे हुए अभिनय से मुख्य पात्र और उसकी मनोस्थिति को कितनी खूबी से प्रस्तुत किया है. फिल्म के कलाकार यथा बलराज साहनी, ऐ. के. हंगल आदि "इप्टा" से तो थे ही, अन्य कलाकार भी मुख्यतः रंगमंच से ही थे. डाइरेक्टर एम. एस. सथ्यू भी रंगमंच से ही जुड़े हुए थे, इसलिए उन्होंने हर कलाकार से मनमाफिक काम लिया है और हर पात्र आप पर प्रभाव छोड़ जाता है. सत्यजित रे की ही तरह सथ्यू ने भी कम बजट, वास्तविक लोकेशंस, अनजान और कम प्रसिद्द कलाकारों को लेकर भी अतुलनीय फिल्म का सृजन किया है. और कैफ़ी आज़मी साहेब तो मेरे पसंदीदा व्यक्तित्वों में से रहे हैं, उनके बारे में जितना कहा जाय कम है.
अफ़सोस कि इतनी बेहतरीन फिल्म के बारे में बहुत ही कम लोग जानते होंगे. आज जब "एक था टाइगर" और "राऊडी राठोर" सरीखी फिल्में सबकी पसंद बनती जा रही हैं, दर्शकों में अभी भी "गर्म हवा" सरीखी फिल्मों को समझ पाने की संवेदनशीलता बची है, इसमें मुझे संदेह है.
और आख़िर में आपका आभार, आपने हम जैसे पाठक सर के प्रसंशकों के बीच काफ़ी समय बिताया और काफ़ी कुछ साझा किया, और विश्वास है आगे भी करते रहेंगे. पर मेरी आपसे पाठक सर से इतर भी काफी उम्मीदें हैं, इसलिए अपने ब्लॉग को पुनर्जीवित करने के लिए भी आपको बधाई और आपका आभार.
संगीता पुरी: धन्यवाद्,आपका स्वागत है |
Prince: विशी भाई सबसे पहले तो आपकी इस बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक टिपण्णी के लिए शुक्रिया । यह आप ही जैसे बुद्धिजीवी पाठक है जो अपनी ईमानदार और सटीक प्रतिक्रियाओं से किसी भी लेखक को लिखते जाने के लिए प्रेरित करते जाते हैं और यह बेहद हकीर सा नाचीज़ बन्दा भी कोई अपवाद नहीं है । आपने दुरुस्त फ़रमाया कि दर्शकों की संवेदनशीलता का मयार गिरता जा रहा है जिसकी वजह से मौजूदा दौर में 'गर्म हवाएं' सूखती जा रही हैं ! दर्शकों के अहसास का माद्दा कम से कमतर होता जा रहा है जिसके अनुपात में इस प्रकार की फिल्मों का बनना भी सिकुड़ता जा रहा है ।
पाठक साहब के उपन्यासों और उनके ज़रिये आप जैसे उनके शाईस्ता शैदाइयों से वाबस्तगी मेरे लिए एक खुशनुमा तजुर्बे जैसा है जिसकी खुशबु और अहसास मेरे अंतर्मन को हमेशा महकाते रहेंगे ।
हसन भाई, मैंने गरम हवा बरसों पहले दूरदर्शन पर देखी थी और मंत्रमुग्ध रह गया था । एक वतनपरस्त और नेकदिल मुसलमान को अपने मजहब के कारण कैसी-कैसी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है और कैसे वो अपने ही मुल्क में अजनबी बन जाता है, इसका इससे ज्यादा बेबाक चित्रण शायद ही किसी और फिल्म में हुआ हो । बलराज साहनी तो लाजवाब थे ही, फारूक शेख ने भी अपनी पहली ही फिल्म में दिल को छू लेने वाला अभिनय किया था । जनाब एम . एस . सथ्यू ने अपनी इस पहली फिल्म में अनुभवी निर्देशकों से भी ज्यादा बेहतर निर्देशन दिया है ।
आपने फिल्म के सभी पहलुओं को बेहद नज़दीक से परखा है और आपकी पैनी नज़र से इसका कोई भी भाग अछूता नहीं रहा है । आपने जो पुरानी भूली-बिसरी मगर क्लासिक फिल्मों के अवलोकन और समीक्षा का जो सिलसिला शुरू किया है, उसे अब कायम रखिये और बेमानी-बेहूदा फिल्मों में ही रमने वाले युवा दर्शक वर्ग को हमारे मुल्क में बनाई गयी नायाब फिल्मों से परिचित करवाइए ।
बहुत-बहुत शुक्रिये और बहुत-बहुत तारीफ़ के आप हक़दार हैं ।
जितेन्द्र माथुर
Any Pakistani film about the treatment of Hindus who decided to stay there after partition?
जीतेन्द्र भाई सबसे पहले तो आपकी इस हौंसलाकुन कमेन्ट का बेहद शुक्रिया । मैंने भी गरम हवा सबसे पहली बार दूरदर्शन पर ही देखी थी जिसके बाद से मैं इसे तलाशता फिर रहा था जब तक मुझे यह एक मित्र के ब्लॉग पर नहीं मिली थी । आपका कहना दुरुस्त है कि तकसीम हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों की स्थिति का इससे ज्यादा ईमानदाराना और बेबाक चित्रण शायद ही किसी और फ़िल्म में हुआ हो । एम्,एस,सथ्यु,कैफ़ी आज़मी,शमा ज़ैदी,इस्मत चुगताई,अज़ीज़ अहमद खान वारसी जैसे लोगों ने मिलकर एक ऐसी शाहकार फ़िल्म बनायीं थी जिसका नाम 'गरम हवा' है । इस किस्म को और भी बहुत सारी फिल्में हैं जिन्हें समय की धूल ने ढाँप रखा है । मेरी यही कोशिश होगी की ऐसी फ़िल्मों पर से ज़रा उस गर्द को साफ़ किया जाये ।
Dr VB: Thanks for the comment.Well,i am not aware of any such film mentioned by you as i use to watch Indian films mostly.
जहीर भाई! ये पिक्चर "गर्म हवा " मेरी जानकारी में नहीं थी पर इस्मत चुगताई की कहानी के सन्दर्भ में ये नाम सुना सा लगता है। आपने जब इतने पुरजोर तरीके से ये कहा है की अगर ये न देखि है तो आपको मरने से पहले देखी जाने वाली फिल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल कर लेना चाहिए तो मैंने इसे अपनी लिस्ट में शामिल कर लिया है। फारुख शेख मेरे पसंदीदा अभिनेताओ में से है और मुझे ये पता ही नहीं था की यह इनकी पहली फिल्म थी।आपकी पारखी नजर से उकेरी अन्य हिंदी फ़िल्मों के बारे में ऐसी ही उम्दा जानकारी का और भी इंतज़ार रहेगा।
shaandaar, this my fev blog, and me har hafte idhar aata tha kuch naye ki aas me.. :)
Kuldeep Jain: कुलदीप भाई यह फिल्म बहुतों ने नहीं देखी है और जब आप जैसे खिलाडी आदमी ने भी इसका नाम नहीं सुना था तो आप अंदाज़ा लगा लीजिये कि समय की किस गर्द के ढेर तले यह फ़िल्म छुपी हुई थी । मैंने यह फ़िल्म काफी अरसे पहले दूरदर्शन पर देखी थी जिसके बाद से मैं इस फ़िल्म को नेट और बाज़ारों में तलाशता फिर रहा था जो मुझे यह वहां तो नहीं मिली लेकिन अभी कुछ समय पहले एक अच्छे मित्र और साथी ब्लॉगर ने अपने ब्लॉग पर इस फ़िल्म का डाऊनलोड लिंक पोस्ट किया तब जाकर यह फ़िल्म हत्थे लगी । अब तो यह फ़िल्म यूट्यूब पर भी मौजूद हैं जहां से आप इसे ऑनलाइन भी देख सकते हैं या फिर इसी कमेन्ट सेक्शन में हमारे उन्ही ब्लॉगर दोस्त AKFUNWORLD की भी कमेन्ट है जिनके ब्लॉग से इस फिल्म को प्राप्त किया था और आप उनके ब्लॉग से भी इसको डाऊनलोड कर सकते हैं।
और जहाँ तक फ़िल्म की बात है तो निश्चय ही देखने और सहेजने लायक फ़िल्म जो आपको अवश्य ही बेहद पसंद आएगी ।
Akfunworld: आनंद भाई तारीफ के लिए बहुत शुक्रिया। जैसा कि मैं उक्त पोस्ट में ज़िक्र कर ही चुका हूँ कि रुचियों के सामायिक परिवर्तन के चलते ब्लॉगिंग की दुनिया से दिल उचाट होने की वजह से तबियत फ़ेसबुक पर जा ठहरी थी जहां मैं कुछ समय तक विचरता रहा था । बहरहाल,अब दोबारा ब्लॉग पर वापसी होने पर आईन्दा मुझे उम्मीद है कि जल्द-बा-जल्द इसी किस्म की पोस्ट पेश कर पाने की हिम्मत कर सकूँगा ।
जी हाँ,आपके ब्लॉग पर इस फ़िल्म को पाकर मैं ख़ुशी से फूला नहीं समाया था और हमने इस पर काफ़ी चर्चा भी की थी । इस तरह की फ़िल्में बहुत कम ही है हिंदी फ़िल्मों के इतिहास में जो दिल को इस तरह से छू जाती हो ।
मुझे भी आपके ब्लॉग पर ऐसी ही दिल को छू लेने वाली फ़िल्मों के लिंक्स का इंतज़ार रहेगा ।
Chandan: Thanks Chandan Ji for liking this blog.You are most welcome.
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