Friday, November 16, 2012

# Waqt

"मौत से भला किसकी रिश्तेदारी है,
आज हमारी तो कल तुम्हारी बारी है"

दोस्तों,इसी फ़लसफ़े को सच करते हुए इस साल फिल्मी दुनिया की कई मशहूर हस्तियाँ हमसे बिछड़ गयी जिनकी भौतिक उपस्थिति भले ही हमारे बीच में न हो लेकिन जिनका नाम अपने काम की वजह से हमेशा हम सब के दिलों में जिंदा रहेगा ।

ऐसी ही एक वट वृक्ष सरीखी हस्ती थी मशहूर निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा साहब(1932-2012) की जो अक्टूबर माह में हम सब से बिछड़ गए लेकिन जिनका नाम हिंदी फिल्मी दुनिया में हमेशा यश पाता रहेगा ।
इस सपनों के सौदागर सरीखे निर्देशक को जिसकी फ़िल्मों ने हमें मनोरंजन से परिपूर्ण अनगिनत लम्हे दिए हैं उसे आज हम उसकी एक फ़िल्म पर तब्सिरा कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे ।

यश चोपड़ा यानी यश राज चोपड़ा मशहूर निर्माता-निर्देशक बी.आर.चोपड़ा के छोटे भाई थे जिन्होंने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत आई एस जौहर के सह-निर्देशक के रूप में की जिसके बाद यह अपने बड़े भाई के साथ फ़िल्म प्रोडक्शन में जुड़ गए और जिन्होंने स्वतंत्र रूप से इन्हें अपनी फ़िल्म 'धूल का फूल' का निर्देशन सौंपा ।  'धूल का फूल' की क़ामयाबी के बाद इन्होने अपने भाई के बैनर के लिए 'धर्मपुत्र','वक़्त','आदमी और इंसान और 'इत्तेफ़ाक' जैसी फ़िल्मों का निर्देशन किया जिनमे से 'वक़्त' और 'इत्तेफ़ाक' ने सफ़लता के झंडे गाड़े जबकि 'धर्मपुत्र' और 'आदमी और इन्सान' ने औसत सफ़लता प्राप्त की ।
आज की इस महफ़िल में हम बात करेंगे फ़िल्म 'वक़्त'(1965) के बाबत जिसकी चटख,चमक और रंग आज लगभग आधी सदी गुज़र जाने के बाद भी फीके नहीं पड़े हैं ।




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Saturday, November 10, 2012

# Shakti

शहर: बरेली,
ज़िला: उत्तर प्रदेश
22 सितम्बर सन 1982,सुबह के क़रीब 10 बजे
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शहर बरेली का सबसे बड़ा और सबसे भव्य थियेटर प्रभा टाकीज़ जो रामपुर गार्डन नामक पॉश कॉलोनी के नज़दीक स्थित है । आज इस टाकीज़ में पैर रखने तक को जगह नहीं है और हर तरफ़ सर ही सर नज़र आ रहे हैं । हर तरफ़ भीड़ ही भीड़ ।  बुकिंग विंडो,जहाँ टिकटें बांटी जाती है कब की बंद हो चुकी है लेकिन अब भी विंडो को घेरे कई लोग इस उम्मीद में खड़े हैं कि शायद विंडो दोबारा फिर खुलेगी । विंडो के नज़दीक एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ है जिसपर मोटे-मोटे अंग्रेज़ी के अक्षरों में लिखा है 'हॉउसफुल' जिसे देख कर टिकट खरीदने आने वाले दर्शक निराशा में सर हिलाते हुए वापस लौट रहे हैं ।  जिनको टिकट मिल चुके हैं वे चहरे पर प्रसन्नता और विजेता के से भाव लिए दूसरो को हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए घूम रहे हैं और जिनको टिकट नहीं मिले हैं वे बेचैनी के आलम में टिकटों की जुगाड़ में हड़बड़ाये इधर-उधर घूम रहे हैं । 

एक कोने में एक ब्लैकिया टिकट बेच रहा है जिसे घेर कर भीड़ खड़ी है । ब्लैकिया बड़ी दक्षता से एक हाथ में टिकटों को दबाये और दुसरे हाथ में नोटों को उँगलियों के बीच दबाये 'पाँच का बीस,पाँच का बीस' कहता हुआ टिकट बेच रहा है । भीड़ उससे मोलभाव कर रही है लेकिन वह बड़े तजुर्बेकार और घिसे हुए अंदाज़ में अपनी मांग से टस से मस नहीं हो रहा है । 

ब्लैकिया और उसे घेरे खड़ी भीड़ से थोड़ी दूर टाकीज़ के एक गेट के नज़दीक एक छह-सात साल का बच्चा दीवार के सहारे खड़ी साईकल पर बैठा हुआ उत्सुकता और आशा भरी से नज़रों से बार-बार मुंह उठा कर भीड़ की तरफ देख रहा है । थोड़ी देर में भीड़ से निकल कर एक युवक साइकिल की तरफ़ आता है जिसे देख कर बच्चा उत्सुकता भरे अंदाज़ में कहता है,"क्या हुआ मुख़्तार भाई टिकट मिला क्या?" । युवक ना में सर हिलाता है । बच्चे का सर लटक जाता है । "चलो वापस चलते हैं",युवक कहता है । साइकिल पर बैठकर दोनों वापस लौट जाते हैं लेकिन उसी दिन के दुसरे शो के लिए करीब 1 बजे दोनों फिर वापस लौटते हैं । युवक टिकट विंडो पर किसी राशन की दुकान पर लगी सर्प सरीखी लम्बी लाइन में लग जाता है और बच्चा साईकल की रखवाली करता हुआ उसपर बैठा हुआ इस बार टिकट मिल जाने की आशा मन में लिए हुए इंतज़ार करता है । युवक एक बार फ़िर टिकट विंडो से टिकट प्राप्त करने की जीतोड़ कोशिश करता है लेकिन इस बार भी उसके हाथ निराशा ही लगती है और दोनों को फिर मुंह लटकाए घर वापस लौटना पड़ता है ।

दोस्तों,उस प्रभा थियेटर में-जिसका नाम प्रभा टाकीज़ था-फ़िल्म 'शक्ति' लगी थी और वह बच्चा और कोई नहीं बल्कि खुद खाकसार था और आज की इस बज़्मे महफ़िल में हम तब्सिरा करेंगे फ़िल्म 'शक्ति' पर । 







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Saturday, November 3, 2012

# गर्म हवा(Scorching Winds)

दोस्तों,इस ब्लॉग पर इतने तवील अरसे बाद हाज़िरी भरने के लिए आप सबसे मुआफ़ी की दरख्वास्त है । दरअसल हुआ यह था कि रुचियों के सामायिक परिवर्तनों के चलते ब्लॉग से तबियत उचटी और फेसबुक पर जा ठहरी जहाँ कुछ अरसे तक मशहूर लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब के कद्रदानों के बीच रहा.......कुछ उनकी सुनी और कुछ अपनी कही | 

बहरहाल,एक बार फिर आप सबके बीच हाज़िर हूँ एक नयी पोस्ट लेकर जिसमे हम बात करेंगे एक ऐसी फ़िल्म की जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि वह तब थी जब बनी थी । यह एक ऐसी फिल्म है जो जितनी ईमानदारी से सवाल उठाती है उतने ही सशक्त ढंग से उनका जवाब भी देती है । यह एक ऐसी फिल्म है जो देखने वालों को झकझोर देती है और उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है । यह वह फिल्म है जो शायद आप में से ज़्यादा लोगों ने देखी न हो या शायद नाम भी न सुना हो और अगर ऐसा है तो यह वो फ़िल्म है जिसका नाम आपको मरने से पहले देखी जाने वाली फिल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल कर लेना चाहिए ।

दोस्तों,उस फ़िल्म का नाम है 'गर्म हवा' जो सन 1973 में प्रदर्शित हुई थी और जिसके मुख्य कलाकार थे 'बलराज साहनी,फारूख शेख़,गीता सिद्धार्थ,जलाल आग़ा,ए.के हंगल,युनुस परवेज़,जमाल हाशमी' इत्यादि ।        




























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