समय:1972 की एक सर्द शाम
जगह:खार,मुंबई
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एक ऑफिस-नुमा कमरे में एक निर्माता-निर्देशक पिता-पुत्र की जोड़ी एक नव-निर्मित लेखक जोड़ी से अपनी नयी फिल्म के लिए कहानियाँ सुन रही है.लेखक जोड़ी दो कहानियाँ सुनाती है:
पहली:गरीब नायक को ब्रेन ट्यूमर है,मृत्यु को निश्चित जान कर अपने घर के हालात सुधारने के लिए वोह पैसे के बदले में किसी और के क़त्ल का इल्जाम अपने सर ले लेता है ।
जगह:खार,मुंबई
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एक ऑफिस-नुमा कमरे में एक निर्माता-निर्देशक पिता-पुत्र की जोड़ी एक नव-निर्मित लेखक जोड़ी से अपनी नयी फिल्म के लिए कहानियाँ सुन रही है.लेखक जोड़ी दो कहानियाँ सुनाती है:
पहली:गरीब नायक को ब्रेन ट्यूमर है,मृत्यु को निश्चित जान कर अपने घर के हालात सुधारने के लिए वोह पैसे के बदले में किसी और के क़त्ल का इल्जाम अपने सर ले लेता है ।
दूसरी:एक रिटायर्ड आर्मी अफसर के परिवार का सामूहिक हत्याकांड हो जाता है । उसे अपने दो जूनियर कोर्ट-मार्शल्ड अफसरों की याद आती है । जो बदमाश पर बहादुर थे । रिटायर्ड आर्मी अफसर उनको अपने बदला लेने की मुहीम में शामिल करने की सोचता है ।
पहली कहानी की संपूर्ण स्क्रिप्ट तैयार थी जबकि दूसरी सिर्फ इन चार लाइन के विचार मात्र से पनपना बाकी थी । युवा निर्देशक को दोनों कहानी पसंद आती है पर आर्थिक पहलु के चलते सिर्फ एक कहानी का सौदा हो पाता है,बुज़ुर्ग एवं अनुभवी पिता लेखक जोड़ी को 75,000/- में उस चार लाइन के विचार को एक संपूर्ण कहानी में विकसित करने के लिए अनुबंधित कर लेता है । निर्देशक पुत्र को भान है के उसके पिता ने घाटे का सौदा नहीं किया है ।
जी हाँ,शोले,जो एक मिथक है,एक किवदंती है,एक मील का पत्थर है जिसकी सफलता के सही सही कारण अभी भी अनसुलझे रहस्य हैं । 1975 में रिलीज़ हुई इस फिल्म ने तब से लेकर अब तक की सभी पीढियों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है ।
बी.बी.सी. द्वारा शताब्दी की फिल्म करार दी जाने वाली इस फिल्म का जादू अभी भी कायम है,अभी भी दुबारा रिलीज़ होने पर ये फिल्म अपने साथ की फिल्मों से कही ज्यादा बिजनेस करती है.मुंबई के मिनर्वा थियेटर में लगातार 5 साल चलने का रिकॉर्ड भी शोले के ही नाम है ।
आखिर क्या है इस फिल्म में जिसकी वजह से इसकी चमक अभी तक फ़ीकी नहीं पड़ी है,वो कौनसे ऐसे तत्व हैं जिन्होंने इस फिल्म को अमरता प्रदान की है.कोई कहता है की जब 70' के दशक में लोगों का विश्वास कानून-व्यवस्था से उठता जा रहा था तब ऐसे में एक फिल्म जो व्यवस्था से उम्मीद न करके अपनी समस्या खुद सुलझाने का सन्देश देती हुई आई तो लगा जैसे व्यवस्था से पीड़ित समस्त जनमानस की पीड़ा को एक जुबां मिल गयी ।
दूसरी तरफ रमेश सिप्पी मानते हैं के शोले की सफलता में इसके ध्वनि प्रभावों का बहुत बड़ा हाथ रहा,'जय' द्वारा उछाले गए सिक्के की चट्टान पर गिरकर खनखनाहट,ठाकुर की हवेली में लगे झूले की किरकिराहट,रेल इंजन से निकली भाप का बन्दूक की गोली से साम्य और गब्बर के परदे पर आगमन के समय आती हुई सियारों के रोने की आवाजें,ये सब मिलके एक अजीब ही प्रभाव पैदा करती हैं.इसके अलावा गोली की एक अलग और विशिष्ट आवाज़,ट्रेन के साथ भागते हुए घोड़े और पटरी पर रखे हुए लकड़ी के लट्ठों को चूर-चूर करती ट्रेन,ये सब इससे पहले कभी इतने बड़े और प्रभावी अंदाज़ में देखा नहीं गया ।
अपने प्रदर्शन के समय ट्रेड पंडितों द्वारा नकार दी गई इस फिल्म ने शुरू के तीन सप्ताह बाद जो रफ्तार पकड़ी वो अपने-आप में हैरतंगेज़ है.सभी ट्रेड मैग्जीनों द्वारा फ्लॉप करार दिए जाने के बावजूद इस फिल्म की अभूतपूर्व सफलता ने उन्ही दिग्गजों को अपने शब्द वापस लेने पर मजबूर कर दिया ।
1972 में जब इस फिल्म की रूप-रेखा बनना शुरू हुई थी तब कई लोगों का भविष्य एक तरीके से इस फिल्म पर ही निर्भर था,आइये बात करते हैं उन लोगों की वर्ष 1972 को मद्देनज़र रखते हुए ।
रमेश सिप्पी:'अंदाज़(1970) और सीता और गीता'(1972) की सफलता के बाद रमेश सिप्पी,सिप्पी बैनर को बी.ग्रेड फिल्मों से ऊपर तो ले आये थे पर उसको कायम रखने के लिए उन्हें लगातार तीसरी हिट की ज़रूरत थी जो वे शोले में देख रहे थे ।
अमिताभ बच्चन:इस वक़्त तक अमिताभ की झोली में सिर्फ 'आनंद'(1970) के रोल की तारीफ के अलावा 10 फ्लॉप फिल्में थी,उन्हें एक हिट की सख्त ज़रूरत थी अपने डूबते कैरियर को बचाने के लिए,जिसके लिए उनकी सारी उम्मीदों का केंद्रबिंदु शोले ही थी ।
अमिताभ बच्चन:इस वक़्त तक अमिताभ की झोली में सिर्फ 'आनंद'(1970) के रोल की तारीफ के अलावा 10 फ्लॉप फिल्में थी,उन्हें एक हिट की सख्त ज़रूरत थी अपने डूबते कैरियर को बचाने के लिए,जिसके लिए उनकी सारी उम्मीदों का केंद्रबिंदु शोले ही थी ।
अमजद खान:'जयंत'(ज़करिया पठान) के इस छोटे बेटे के पास ऐसा कुछ नहीं था जिसे कैरियर कहा जा सके सिवाय चंद छोटे-मोटे रोल्स और अधूरी फिल्म 'लव एंड गौड' में स्वर्गीय 'के.आसिफ' की सहायिकी के.ऐसे में जब डैनी द्वारा 'गब्बर' का रोल छोड़े जाने पर अमजद की झोली में ये मौका गिरा तो अमजद को जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिला और वो किसी भी कीमत पर इस मौके को ज़ाया करना नहीं चाहते थे ।
सलीम खान-जावेद अख्तर:'सरहदी लुटेरा'(1966) के सेट पर फिल्म में हीरो की भूमिका निभा रहे इंदौर के D.I.G के बेटे सलीम की फिल्म के क्लैपर बॉय और संवाद लेखक जावेद से मुलाक़ात होती है जो दोस्ती में बदल जाती है,दोनों को ही लेखन में रूचि है और दोनों ही फिल्मों में लेखकों की 'मुनीम' जैसी हैसियत से झुब्ध हैं,
वे इस निज़ाम को बदलना चाहते है,उन्हें पैसे के साथ साथ श्रेय भी चाहिए.'अंदाज़' और 'सीता और गीता' में लेखन का श्रेय न मिलने की शिकायत करने पर रमेश सिप्पी ने इस तीसरी फिल्म में समुचित श्रेय देने का वायदा किया है.'शोले' की सफलता अब इस लेखक जोड़ी की इज्ज़त का सवाल है ।
तो दोस्तों,इन सब लोगों की आशाओं के आटे में गुंथी एक कहानी उस चार लाइन के विचार से आगे बढ़ कर एक मुक़म्मल शक्ल लेने लगी.आर्मी अफसर की जगह रिटायर्ड पुलिस अफसर ने ले ली और कहानी का ढांचा तैयार होने लगा जिसकी नींव 'मेरा गाँव मेरा देश'(1971),'Butch Cassidy And The Sundance Kid,The Magnificent Seven' और 'Seven Samurai'(1960) जैसी फिल्मों से प्रेरित विचार पर रखी गई थी ।
फिल्म की बहुत सारी घटनाएं/पात्र हकीकी ज़िन्दगी से उठाये गए थे,मुख्य पात्रों ने नाम,जैसे,'ठाकुर बलदेव सिंह' सलीम खान के ससुर का नाम था,'गब्बर सिंह' वाकई में एक दुर्दांत डकैत था जो ग्वालियर के आस-पास के गाँवों में 1950's में सक्रिय था,'सूरमा भोपाली' जावेद के भोपाल के किसी पहचान वाले का नाम था,'हरिराम नाई' सलीम खान के पिता के पुश्तैनी नाई का नाम था और 'जय-वीरू' इनके कॉलेज के दोस्तों का नाम था ।
यहाँ तक जय का बसंती की मौसी से वीरू की शादी के बारे में बात करने वाला दृश्य भी एक वास्तविक घटना से प्रेरित था,हुआ ये था की जावेद 'सीता और गीता' के समय से फिल्म की सह-नायिका 'हनी ईरानी' की मोहब्बत में गिरफ्तार थे,पर हनी ईरानी की माँ जावेद को पसंद नहीं करती थी,मजबूर जावेद अपने दोस्त सलीम से इस रिश्ते की सिफारिश हनी ईरानी की माँ से करने को कहते है इस बात से अन्जान के स्वयं सलीम भी इस रिश्ते के विरुद्ध हैं,और सलीम ने जिस अंदाज़ में अपने दोस्त की सिफारिश की वो तो आप सब ने शोले में देखा ही होगा ।
मैंने शोले पहली बार कब देखी ये मुझे याद नहीं,पर इतना ज़रूर याद है के मेरे चाचा के यहाँ इसके संवादों वाला LP रिकॉर्ड खूब बजता था,मेरे बाल मन पर 'गब्बर,ठाकुर,बसंती' की खूब छाप पड़ी और एक समय ऐसा आया जब मुझे इसके सारे संवाद तरतीब में अक्षरंश याद हो गए थे,घर पर मेहमान आने से मुझसे 'शोले' के संवाद सुनाने की फरमाईश की जाती और बदले में 25 पैसे मिलते ।
ये शोले की ही वजह थे जिसके बाद से मुझे ट्रेनों में सफ़र करना बहुत रोमांचक लगने लगा,मेरा बाल मन हर ट्रेन-सफ़र के दौरान बस इस इंतजार में रहता की कब गब्बर के डाकू हमला करें और कब ट्रेन के सबसे पीछे के गार्ड के डिब्बे से निकल के 'जय-वीरू' उनकी पिटाई करें ।
हर बार शोले देखने के बाद इस बात पर बहुत गुस्सा आता था के गब्बर के अड्डे से भागते समय धर्मेन्द्र ने कारतूस के बक्से से इतनी कम गोलियां क्यों निकाली जिससे के उनकी गोलियां बीच में ख़त्म हो गईं,क्यों नहीं उन्होंने सारे डाकुओं को गब्बर के अड्डे पर ही ख़त्म कर दिया,क्यों नहीं उन्होंने डाकुओं की सारी बंदूकों को अपने कब्ज़े में ले लिया जिससे के 'जय' के मरने की नौबत नहीं आती!!
इस बात पर भी बहुत गुस्सा आता की फिल्म के आखिर में गब्बर को बचाने पुलिस कहा से पहुँच गयी,पूरी फिल्म में तो डाकुओं को मारती पुलिस कही नज़र नहीं आती पर आखिर में गब्बर को बचाने झट पहुँच जाती है.और सबसे ज़्यादा बुरा तो उस दृश्य में लगता था जिसमे गब्बर मास्टर-अलंकार को गोली मारता है,आखिर अलंकार घर से नहाने के बाद बाहर ही क्यों निकला...अगर वो घर से बाहर ही नहीं निकलता तो शायद बच सकता था ।
शोले में बहुत सारी बातें लीक से हटके थी,जैसे इससे पहले डाकुओं का अड्डा रेतीली ज़मीन पर होता था और डाकू उसूल वाले होते थे,धोती-कुरते में रहते थे माथे पर लम्बा सा तिलक लगाये हुए,पर शोले का गब्बर आर्मी की वर्दी में रहता है और उसका अड्डा चटियल बड़े-बड़े विशाल साइज़ के पत्थरों के बीच है,और उसके कोई उसूल नहीं है,वो बुरा है,इतना क्रूर के अपने दुश्मन के खानदान को समूल नष्ट करने से भी पीछे नहीं हटता,और हद-दर्जे का घमंडी भी,भला कौन ऐसा डाकू होगा जो अपने सर पर रखे इनाम को ताज की तरह पहनता हो ।
शोले में दो दोस्त भी है जो दोस्ती की खातिर एक दुसरे के लिए जान भी दे सकते है पर उनकी दोस्ती में एक दुसरे की प्रशंसा के लिए कोई जगह नहीं,शायद उनके पास एक दुसरे के लिए कहने के लिए कुछ भी अच्छा नहीं है,इसीलिए जब 'जय' अपने दोस्त के रिश्ते की बात चलता है तो उसके पास कहने के लिए कुछ भी भला नहीं था.ऐसी बेफिक्र दोस्ती इससे पहले सिनेमा के परदे पर नहीं दिखी ।
बदले की आग में जलता एक रिटायर्ड पुलिस अफसर है जो अपने परिवार का बदला लेने के लिए कानून का दरवाज़ा नहीं खटखटाता,बल्कि खुद ही दो बदमाशों के सेवाएं लेता है,ये साफ़ सन्देश था आम जनता के लिए की अब व्यवस्था से उम्मीद करना बेकार है,जो भी करना होगा खुद ही करना होगा ।
दो सामानांतर चलती हुई प्रेम-कहानियां भी है,एक मुखर और उफनती हुई,दूसरी खामोश और अंदर ही अंदर पलने वाली.पहली का इज़हार डंके की चोट पर पानी की टंकी पर चढ़के किया जाता है और दूसरी का खामोश रातों में माउथ-आर्गन के सुरों द्वारा ।
आइये,बात करते है शोले से जुडी कुछ ऐसी चीज़ों की जो शायद आपने पहली कभी देखी-सुनी न हों. ये देखिये शोले के गब्बर सिंह के अड्डे की आज की लोकेशन
शोले से जुडी कुछ तसवीरें देखिये...
दोस्तों,हम सभी जानते हैं के शोले में ये 5 गीत थे:
1.ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे...
2.कोई हसीना जब रूठ जाती है...
3.होली के दिन दिल खिल जाते हैं..
4.जब तक है जां....
5. महबूबा-महबूबा...
पर उपरोक्त गीतों के अलावा एक कव्वाली भी थी जिसकी रिकॉर्डिंग तो हुई थी पर फिल्माई नहीं गई थी,जिसकी वजह से ये कव्वाली फिल्म में शामिल नहीं हो पाई थी.उस कव्वाली को स्वर दिए थे 'किशोर कुमार,भूपेंद्र,मन्ना दे और आनंद बक्षी' ने,बक्षी जी को आखिर तक मलाल रहा के अगर वो कव्वाली फिल्म में शामिल की जाती तो उनका कैरियर गायक के रूप में भी चल निकलता. तो दोस्तों पेशे-खिदमत हैं आप सब के लिए वो कव्वाली जिसे आप लोग यहाँ सुन सकते है.
(Song Courtesy:Alok Bhai)
इसके अलावा शोले के ओरिजनल अंत का और सचिन के मौत के दृश्य का विडियो पहले ही कॉमिक वर्ल्ड पर पोस्ट किया जा चूका है,आप उसे इस लिंक पर क्लिक करने से देख सकते हैं.
और एक बात,क्या आप जानते है 1999 में ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट में समलैंगिकों के सिनेमा समारोह में 'शोले' का प्रदर्शन करके ये बात स्थापित करने की कोशिश की गई थी के जय और वीरू के बीच में सामान्य दोस्ती के अलावा भी रिश्ते थे.मोटर-साइकिल पर दोनों द्वारा गाए गए गाने 'ये दोस्ती हम नहीं...' के दौरान वीरू का जय के कंधे पर बैठकर उसके बालों में हाथ फेरते हुए माउथ-आर्गन बजाने व जय का मौसी से वीरू के रिश्ते के बारे में बातचीत का सन्दर्भ देते हुए इशारा किया गया था की ये सब बाते उसी असामान्य 'रिश्ते' की परिचायक हैं.क्यों हैं न बेहद चौंकाने वाला विश्लेषण...
यूँ तो शोले के पात्रों पर आधारित ढेरों विज्ञापन बने हैं,पर 'ब्रिटानिया-ग्लूकोज़' का अमजद द्वारा किये गए इस विज्ञापन की बात ही अलग है,क्योकि ये अपने आप में पहला शोले पर आधारित एड था ।
दोस्तों,इतनी अहम् और लम्बी पोस्ट हो और उसमे क्विज न हो,ऐसा तो हो ही नहीं सकता,तो पेश है शोले-स्पेशल क्विज,हिस्सा लीजिये और अपने ज्ञान के शोले भड़काईये.
1.ठाकुर के बड़े बेटे की भूमिका किस अभिनेता ने निभाई थी.
2.शोले के 'महबूबा-महबूबा' गीत पर एक animated ad बना था,आप बता सकते है वो किस product का एड था.
3.जय के रोल के लिए रमेश सिप्पी पहले किस अभिनेता के नाम पर विचार कर रहे थे.
4. वो कौन सा अभिनेता है जिसने शोले में दो चरित्र निभाए हैं.
5.जलाल आगा मशहूर निर्माता-निर्देशक स्वर्गीय 'के.आसिफ' से किस प्रकार सम्बंधित(professionally) रहे हैं.
6.शोले के 'जय' यानी अमिताभ बच्चन की फिल्म 'शराबी'(1984) में अमिताभ की माँ की भूमिका किस अभिनेत्री ने निभाई थी
7. ज़रा बताइए तो उपरोक्त तसवीरें शोले के किन दृश्यों से ली गईं हैं.
(1)
(2).
(3)
8. शोले के एक बाल कलाकार सचिन इस तस्वीर में कुछ कॉमिक्स के साथ हैं,जिसमें इंद्रजाल कॉमिक्स भी है,क्या आप तस्वीर को गौर से देख के बता सकते है के सचिन के बराबर में इंद्रजाल कॉमिक का कौन सा अंक पढ़ा है.
9. असरानी के साथ ये कौन कलाकार आँखे लड़ा रहा है.
10. बताइए तो शोले के निर्देशक रमेश सिप्पी ने किस फिल्म में 'अचला सचदेव' के बेटे की भूमिका एक बाल कलाकार के तौर पर निभाई थी.
11. शोले को सिर्फ एक फिल्मफेयर अवार्ड मिला था,क्या आप बता सकते है वो कौनसी श्रेणी में किस आर्टिस्ट को मिला था.
12. गब्बर को हथियार बेचने वाले का स्क्रीन नाम क्या था.
13.शोले में एक मशहूर चरित्र अभिनेता ने भी काम किया था जिसने अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत मूक फिल्मों के हीरो के रूप में की थी.क्या आप बता सकते है इस कलाकार का नाम.
14. शोले में जया बहादुरी के पति की भूमिका किस अभिनेता ने की थी.
15.शोले के रिलीज़ वाले दिन सभी दफ्तर-ऑफिस और दुसरे प्रतिष्ठान बंद थे,क्या आप बता सकते है क्यूँ.
(Information Sources with Courtesy:Sholay-The Making of a Classic By Anupama Chopra, Unidentified net sources and my memory/Research)
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दोस्तों,इस पोस्ट पर काफी समय और मेहनत लगी है,उम्मीद है आप सब को पसंद आई होगी.कृपया अपने विचारों से अवगत ज़रूर कराएं ।
चलते-चलते दशहरा/राम नवमी की शुभकामनाओं के साथ एक खुशखबरी,मित्रों हमारे और आपके रफीक भाई(अरे वही comicology वाले) अब अकेले नहीं रहे,बल्कि दुकेले हो गए हैं...नहीं समझे!अरे भइय्या उनकी २६ सितम्बर को शादी हो गई है.चलिए शुभकामनाएं दीजिये उनको सुखी वैवाहिक जीवन के लिए,अब उन्हें दुआओं की सख्त ज़रूरत पढ़ने वाली है ।