Friday, November 16, 2012

# Waqt

"मौत से भला किसकी रिश्तेदारी है,
आज हमारी तो कल तुम्हारी बारी है"

दोस्तों,इसी फ़लसफ़े को सच करते हुए इस साल फिल्मी दुनिया की कई मशहूर हस्तियाँ हमसे बिछड़ गयी जिनकी भौतिक उपस्थिति भले ही हमारे बीच में न हो लेकिन जिनका नाम अपने काम की वजह से हमेशा हम सब के दिलों में जिंदा रहेगा ।

ऐसी ही एक वट वृक्ष सरीखी हस्ती थी मशहूर निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा साहब(1932-2012) की जो अक्टूबर माह में हम सब से बिछड़ गए लेकिन जिनका नाम हिंदी फिल्मी दुनिया में हमेशा यश पाता रहेगा ।
इस सपनों के सौदागर सरीखे निर्देशक को जिसकी फ़िल्मों ने हमें मनोरंजन से परिपूर्ण अनगिनत लम्हे दिए हैं उसे आज हम उसकी एक फ़िल्म पर तब्सिरा कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे ।

यश चोपड़ा यानी यश राज चोपड़ा मशहूर निर्माता-निर्देशक बी.आर.चोपड़ा के छोटे भाई थे जिन्होंने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत आई एस जौहर के सह-निर्देशक के रूप में की जिसके बाद यह अपने बड़े भाई के साथ फ़िल्म प्रोडक्शन में जुड़ गए और जिन्होंने स्वतंत्र रूप से इन्हें अपनी फ़िल्म 'धूल का फूल' का निर्देशन सौंपा ।  'धूल का फूल' की क़ामयाबी के बाद इन्होने अपने भाई के बैनर के लिए 'धर्मपुत्र','वक़्त','आदमी और इंसान और 'इत्तेफ़ाक' जैसी फ़िल्मों का निर्देशन किया जिनमे से 'वक़्त' और 'इत्तेफ़ाक' ने सफ़लता के झंडे गाड़े जबकि 'धर्मपुत्र' और 'आदमी और इन्सान' ने औसत सफ़लता प्राप्त की ।
आज की इस महफ़िल में हम बात करेंगे फ़िल्म 'वक़्त'(1965) के बाबत जिसकी चटख,चमक और रंग आज लगभग आधी सदी गुज़र जाने के बाद भी फीके नहीं पड़े हैं ।




के आसिफ़ की फ़िल्म 'फूल'(1945),जिसमे पृथ्वीराज कपूर ,सुरैया,वीणा,याक़ूब,मज़हर खान,वास्ती,सितारा देवी जैसे उस दौर के बड़े और नामचीन सितारों ने काम किया था,के बाद 'वक़्त' दूसरी ऐसी फ़िल्म थी जिसमे कई बड़े और कामयाब सितारों ने एक साथ काम किया था ।  ऐसी फ़िल्मों को मल्टीस्टारर फ़िल्म कहा जाता है इसलिए यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए की मल्टीस्टारर फ़िल्मों का ट्रेंड कामयाब तरीके से चोपड़ा बैनर की फ़िल्मों से ही शुरू हुआ ।

राजकुमार,सुनील दत्त,बलराज साहनी,शशि कपूर,रहमान,जीवन,सुरेन्द्र नाथ,मुबारक,मनमोहन कृष्णा,
साधना,शर्मीला टैगोर,अचला सचदेव,लीला चिटनीस इत्यादि जैसे बड़े नामो से सजी फ़िल्म 'वक़्त' को चोपड़ा बंधुओं द्वारा बड़े पैमाने पर बनाया गया था जिसके हर दृश्य में उसकी भव्यता के दर्शन होते हैं ।

आइये मिलकर बाते करते करते देखते जाते हैं इस फ़िल्म को ।  बत्तियां बुझ चुकी हैं और विज्ञापनों के बाद शुरू होती है फ़िल्म ।  मैं जब भी कोई फ़िल्म देखने जाता था तो कोशिश करता था कि फ़िल्म के सर्टिफिकेट वाला दृश्य भी मिस न हो क्योंकि फ़िल्म कितने रील की है यह जानने में मुझे बहुत रूचि रहती थी । जितनी ज़्यादा रील,उतनी लंबी फ़िल्म और उतना ही अच्छा ।




 फ़िल्म चालू होने के बाद उसके क्रेडिट्स देखने में भी मुझे काफ़ी रूचि रहती थी क्योंकि मैं हमेशा से यह जानने का भी इच्छुक रहता था कि फ़िल्म के तकनीकी पक्षों की ज़िम्मेदारी भी किन-किन लोगों ने उठाई है ।




फ़िल्म आरम्भ होती है और हम देखते हैं कि लाला केदारनाथ(बलराज सहनी) ने एक और नई दूकान खोली है जिसका कि वह मुहूर्त करने जा रहे हैं ।  देरी करने पर लोगों द्वारा मुहूर्त का समय निकल जाने के बाबत टोके जाने पर लाला केदारनाथ का जवाब होता है कि मुहूर्त का समय कैसे निकल जाएगा और उनके सितारे कभी गर्दिश में नहीं आ सकते क्योंकि उनके साथ उनके तीनों बेटों-जोकि एक ही माह और तारीख को पैदा हुए हैं-के सितारे भी शामिल हैं ।




अगला दृश्य शाम को लाला द्वारा दी गयी पार्टी का होता है जिसमे हम देखते हैं कि लाला की पत्नी लक्ष्मी(अचला सचदेव) घर पर बैठी ढोल बजा रही है और जिसके साथ बजते संगीत में फ़िल्म 'नया दौर'(1957) के गीत की धुन भी सुनाई दे रही है ।
दोस्तों द्वारा गाने की फरमाईश किये जाने पर केदारनाथ वह गीत सुनाता है जो आज 47 साल बाद भी उतना ही मकबूल है । 'ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बी तुझे मालूम नहीं,तू अभी तक है हसीं और मैं जवां.......'गीत में ज़रा बलराज साहनी के इस गीत पर की गयी अदाकारी को ध्यान से देखिये आपको कहीं से कहीं तक फ़िल्म एक्टर बलराज साहनी नज़र नहीं आएगा । अगर कोई नज़र आएगा तो एक सफ़लता के नशे में चूर,सफ़लता और अपनी आशिकमिजाज़ी का जश्न मनाता एक शख्स जिसका नाम केदारनाथ है ।




पार्टी में जब केदारनाथ का दोस्त एक ज्योतिषी को लेकर आता है और लाला के बच्चों का मुस्तकबिल बताने को कहता है तो लाला ज्योतिष पर अपना अविश्वास ज़ाहिर करता है जिसपर ज्योतिषी का कहना होता है कि समय बड़ा बलवान होता है और इन्सान भी हालाँकि बड़ी चीज़ होता है लेकिन समय के आगे मजबूर हो जाता है । लाला इस बात को नहीं मानता और इन्सान की हिम्मत और मेहनत को समय और किस्मत पर तरजीह देता है ।




ज्योतिषी(मैं हमेशा से यह जानने का ख्वाहिशमंद हूँ कि यह भूमिका किस कलाकार ने की है,यदि किसी को पता हो तो ज़रूर बताएं) द्वारा यह फ़लसफ़ाई बात ,'चाय पीने के लिए प्याली उठाएं,तो होंठ और प्याली के बीच बहुत फ़ासला नहीं होता मगर प्याली को होंठ तक पहुँचते पहुँचते कभी बरस बीत जाते हैं' कहने पर केदारनाथ चाय की प्याली उठाकर होंठो से लगाकर व्यंगात्मक अंदाज़ में कहता है कि कहाँ है फ़ासला !  ज्ञानी ज्योतिषी कुछ न कहकर मंद-मंद मुस्कुराते रह जाते हैं ।

 

कुदरत को जैसे केदारनाथ का दम्भी और अभिमानी रवैया पसंद ना आया हो और उसने ज़लज़ला नाज़िल कर चंद लम्हों में ही केदारनाथ के गुरूर को धराशायी होते घरों और मक़ानों की तरह धूल में मिला दिया ।




हालाँकि मनमोहन देसाई को खोया-पाया फ़ॉर्मूले का जनक और सबसे ज़्यादा उपयोग करने वाले निर्देशक के रूप में प्रचारित किया जाता है लेकिन फ़िल्म 'किस्मत'(अशोक कुमार,मुमताज़ शांति) में इस फ़ॉर्मूले के उदगम के बाद फ़िल्म 'वक़्त' में इसका मनमोहन देसाई के समय से काफी पहले इस्तेमाल किया गया था ।

ज़लज़ले के बाद केदारनाथ का सारा परिवार बिछुड़ जाता है,उसकी पत्नी के पास सबसे छोटा पुत्र रह जाता है जबकि बड़ा बेटा एक अनाथालय की शरण पाता है और मंझला पुत्र एक रहमदिल परिवार को मिल जाता है ।





दोस्तों,बी आर चोपड़ा कैम्प में किन्ही अनजान कारणों से मोहम्मद रफ़ी पर गायक महेंद्र कपूर को ही तरजीह दी जाती थी जिसके चलते रफ़ी चोपड़ा कैम्प के लिए गाने से परहेज़ ही करते थे लेकिन फ़िल्म 'वक़्त' के संगीतकार रवि-जो खुद रफ़ी के बहुत बड़े प्रशंसक थे-के इसरार करने पर रफ़ी ने चोपड़ा कैम्प का भेदभावी रवैया भुला कर इस फ़िल्म के लिए यह बेहद लोकप्रिय गीत गाया जो इसका शीर्षक भी गीत था और जिसके बोल थे 'वक़्त से दिन और रात,वक़्त से कल और आज,वक़्त की हर शै ग़ुलाम........'।



केदारनाथ किसी अनाथालय में अपने बड़े पुत्र की मौजूदगी का पता चलने पर जब उसे ढूँढता हुआ वहां पहुँचता है तो अनाथालय के संचालक(जीवन) द्वारा अपने पुत्र को पीटे जाने एवं जिसकी वजह से उसके वहां से भाग निकलने का पता चलने पर तैश और गुस्से में आकर उसके हाथो संचालक की हत्या हो जाती है और केदारनाथ को जेल हो जाती है ।  बलराज साहनी के सहज अभिनय की एक और जिंदा मिसाल इस दृश्य में देखने को मिलती है जब वह संचालक को ज़लज़ले में अपनी बर्बादी की बाबत बताता है और फिर जब अपने पुत्र को पीटे जाने का सुनकर गुस्से में आकर उसका गला दबा देता है । अपनी बर्बादी की दास्तान सुनाते हुए उसके चेहरे पर कतई एक दीन-हीन,लुटे-पिटे के से व्यक्ति के भाव होते है ।




कहानी आगे बढ़ती है और हम देखते हैं कि केदारनाथ का अनाथालय से भगा हुआ बड़ा पुत्र राजा(राजकुमार) एक सफ़ेदपोश चोर बन गया है जो एक हार चुराकर भागा है और जिसके पीछे पीछे पुलिस उसके घर तक पहुँच जाती है ।  पुलिश इंस्पेक्टर,जोकि जगदीश राज है और जिसके नाम हिंदी फ़िल्मों में इंस्पेक्टर के सर्वाधिक रोल अभिनीत करने का रिकॉर्ड है,से राजा को पता चलता है कि जो हार वह चुरा लाया है वह उसके शहर के एक सम्मानित जज की बेटी का है ।



आशिकमिजाज़ राजा अगले दिन जज की बेटी मीना(साधना) की सालगिरह की पार्टी में बिन बुलाये पहुंचकर उसको उसके द्वारा चुराए गए हार का तोहफ़ा यह बताकर देता है कि कल रात चोर उसके घर में घुसा था जिसकी जेब से हार वही गिर गया था ।  राजा की इस भलमनसाहत की अच्छी छाप जज(मनमोहन कृष्णा) और उसके परिवार पर पड़ती है और राजा का उस घर में आना-जाना क़ायम हो जाता है ।




दोस्तों,इस फिल्म में राजकुमार का किरदार सबसे आकर्षक और उत्तेजना लिए हुए है जिसे अपने विशिष्ट अंदाज़ और अनूठी शाहाना टसन भरी संवाद अदायगी के साथ निभा कर राजकुमार दर्शकों की तवज्जो पूरी तरह से अपनी तरफ खींच लेने में कामयाब होते हैं और जब-जब राजकुमार परदे पर नमूदार होते हैं दर्शक उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर पाते ।  एक तरफ का कन्धा थोड़ा सा साइड में झुका कर चलने,शाहाना और नफ़ीस तरीके से बोलने का अंदाज़ इस ग्रे शेड्स लिए रोल में वो रंग भर देता है जो दर्शकों को सबसे चटख और चटकीले लगते हैं ।
राजकुमार की आज जो खुदपसंद,मुंहफट,गर्वोन्नति से भरे हुए और खुद को खुदा से एक हाथ नीचे समझने वाले अदाकार की छवि आम दर्शकों के बीच बनी हुई है उसकी बुनियाद फ़िल्म 'वक़्त' से ही पड़ी थी ।
इसी फ़िल्म में कई ऐसे संवाद थे जो बहुत लोकप्रिय हुए ठीक फ़िल्म 'शोले' के बाद अमजद खान के 'कितने आदमी थे' सरीखे संवादों के ।
एक बानगी देखिये,राजा का सरपरस्त चिनॉय सेठ(रहमान) उसे चुराए गए इतने कीमती हार को वापस कर देने की दरियादिली के चलते हुए उसके नुकसान के लिए डांट और धमकी भरे अंदाज़ में बात करता है जिसे चाकू खोल कर हवा देता है चिनॉय सेठ का गुंडा बलबीर(मदन पुरी) । गुंडे का यह धमकी भरा अंदाज़ देखकर राजकुमार धीरे से कुर्सी से उठता है,कोट के बटन लगाते हुए बलबीर के पास पहुँच कर उसके हाथ में थामे हुए चाक़ू को जबरन उसके हाथ से लेकर कहता है,"यह बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं,हाथ कट जाये तो खून निकल आता है "और चाकू एक तरफ उछाल कर चलता बनता है ।




कहानी में प्रेम त्रिकोण की संभावनाएं बनती हैं जब केदारनाथ का मंझला पुत्र रवि(सुनील दत्त) वकील बनकर विलायत से लौटता है और जिसे मीना पसंद करती होती है ।  राजा मीना को पसंद करता है लेकिन मीना और रवि एक दूसरे को पसंद करते हैं और दोनों की बढ़ती हुई कुर्बतें राजा के मन में हसद का जज़्बा पैदा कर देती हैं ।



केदारनाथ के तीसरे पुत्र विजय(शशि कपूर) को भी तस्वीर में लाया जाता है जो रवि के पालक पिता(सुरेन्द्र नाथ) की लड़की रेणु(शर्मीला टैगोर) के साथ एक ही कॉलेज में पढ़ता है और दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं ।




विजय जो ग़रीबी का मारा है और अपनी माँ की बीमारी के चलते उसके इलाज के लिए बंबई जाता है और कोई ढंग की नौकरी न मिलने की वजह से चिनॉय सेठ के यहाँ ड्राईवर की नौकरी करने को मजबूर है ।
उधर लाला केदारनाथ भी अपने सज़ा काटने के बाद जेल से छूट चुका है और अपने परिवार की तलाश में लगा रहता है ।


        
मीना के लिए अपने आप को पूरी तरह क़ाबिल बनाने के लिए राजा चिनॉय सेठ के लिए चोरी-चकारी का काम छोड़ने का फ़ैसला कर लेता है जिसपर चिनॉय सेठ उसको धमकाता है कि यदि मीना के जज बाप को उसकी असलियत का पता चल गया कि वह एक चोर है तो मीना से उसकी शादी करने की तमन्ना धरी की धरी रह जाएगी । और जिसके बाद हम राजकुमार के मुंह से निकले उस कालजयी संवाद को सुनते हैं जिसने एक अति-लोकप्रिय एवं प्रचलित मुहावरे का सा रूप ले लिए है कि "जिनके अपने घर शीशे के हों वह दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते "।





होटल सन एंड सैंड के स्विमिंग पूल में किलोले करते हुए जब राजा मीना और रवि को देखता है और चेंज रूम में उनकी आपसी मोहब्बत का इक़रार और शादी के मंसूबों के बाबत सुनता है तो ईर्ष्या की आग से पैदा होने वाले अपने भावों के इज़हार का उसका तरीका देखिये । दाँतों में ऊँगली फंसाकर झटका देना,दोनों की मोहब्बत और कुर्बत भरी बाते सुनते हुए अपने जलते हुए दिल को माचिस की तीली जलाकर प्रतीकात्मक रूप से इंगित करना यह सभी मैनेरिज्म राजकुमार की अदाकारी को बला का आकर्षण प्रदान करते हैं ।






राजकुमार की आकर्षक अदाकारी और संवाद अदायगी की एक और मिसाल देखिये । साधना की मंगनी सुनील दत्त से होने का कार्ड पाकर जब चिनॉय सेठ राजकुमार के जले पर नमक छिड़कने उसके पास नकली सहानुभूति दिखाने आता है तो राजकुमार का जवाब होता है,"राजा के ग़म को किराये के रोने वालों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी चिनॉय सेठ" ।  वाह ! क्या खूब संवाद लिखे थे अख्तरुल ईमान साहब ने और उतने ही दिलकश अंदाज़ में अदा किये थे राजकुमार ने !




रवि को अपने रास्ते का काँटा जानकर उसको रास्ते से हटाने के इरादे से राजा पिस्तौल लेकर रवि के कमरे में रात में घुसता है लेकिन वहां रवि के बचपन की तस्वीर देखकर उसे पता चलता है कि रवि दरअसल उसका ही बिछुड़ा हुआ छोटा भाई है ।





जब रवि के खानदान,पिता का नाम और पहचान की गुमशुदगी की वजह से उसके और मीना के रिश्ते पर खतरा मंडराता है तो राजा रवि के पिता और खानदान के बारे में सबको बताने लिए खुद के ज़मीर को चिनॉय सेठ के पास बेच कर उसकी ज़बान बंद रखने का सौदा करता है और एक पार्टी देता है जिसमे वह रवि के उजले खानदान और पिता के नाम का खुलासा करने वाला था लेकिन पार्टी में रंग में भंग तब पड़ जाता है जब नशे में धुत मदनपुरी मीना से छेड़छाड़ कर बैठता है और नतीजे में राजा उसकी सरेआम पिटाई लगाता है ।




पार्टी के बाद नशे में धुत मदनपुरी का बाद में झगड़ा अपने मालिक रहमान से हो जाता है और लड़ाई में रहमान के हाथों मदनपुरी का क़त्ल हो जाता है जिसे वह राजा के सर मढ़ देता है और इस वाक्ये के चश्मदीद गवाह अपने ड्राईवर शशि कपूर को उसकी बीमार माँ के इलाज के लिए दरकार रूपये देकर उसकी ज़ुबान बंद कर देता है ।





राजा अपने भाई का कैरियर चमकाने हेतु नौसिखिये रवि को अपना केस सौंपता है जिसके बाद आरम्भ होता है वह कोर्ट दृश्य जो एक तरह से बी आर फ़िल्म्स की आने वाली फ़िल्मों की पहचान और फ़िल्म 'वक़्त' का हाईलाइट दृश्य बन जाता है ।
कोर्ट दृश्य और उनमे होती दिलचस्प जिरह जैसे बी आर फ़िल्म्स की पहचान हैं उदहारण के तौर पर फ़िल्म 'क़ानून,गुमराह,आज की आवाज़,अवाम' जैसी फ़िल्मों के ज़ोरदार कोर्ट रूम ड्रामा दृश्यों को गिनाया जा सकता है ।





जब सवाक हिंदी फ़िल्में बनना शुरू हुई तब उनपर हिंदुस्तान की नाटक मंडलियों और थियेटर्स का असर था जिसकी वजह से फ़िल्मों में भी अदाकार नाटकीयता और थियेट्रीकल्स के प्रभाव से अछूते नहीं थे और अपने संवाद और अदाकारी ड्रामाई अंदाज़ में निभाते थे ।  हिंदी फ़िल्मों में इस ड्रामाई अंदाज़ को दरकिनार कर सहज अभिनय से अदाकारी का जलवा बिखेरने वाले पहले अभिनेता थे 'मोतीलाल' जिन्होंने नाटकीयता की जगह अपने सहज अभिनय से हिंदी दर्शकों को अदाकारी के एक अलग और प्रभावशाली आयाम से रूबरू करवाया और जिनसे बाद के अदाकारों ने बहुत कुछ सीखा ।  यही श्रेष्ठ अभिनेता 'मोतीलाल' इस फ़िल्म में सरकारी वक़ील के रूप में अपने उसी सहज अभिनय का जलवा बिखेरते दिखते हैं ।

         

जिरह का दिलचस्प दौर आगे बढ़ता है और रवि अंतत: अदालत में कई तरह के ड्रामों और अँधेरे में तीर मारने जैसी हरकतों को इस्तेमाल कर असली क़ातिल चिनॉय सेठ को बेनकाब करने में कामयाब हो जाता है ।






पूरे केस के दौरान राजकुमार के चहरे पर केस के बदलती हुई स्थितियों के अनुसार बदलते जाते भाव परिलक्षित होते रहते हैं जो देखते ही बनते हैं ।






क़िस्मत एक तरीके से पूरे परिवार को अदालत में लेकर हाज़िर है और अब बस किसी तरह से उनके मिलने भर की देर है ।  बड़ा भाई मुलज़िम है तो मंझला भाई उसका केस लड़ रहा है,सबसे छोटा भाई भी गवाह की हैसियत से कोर्ट में मौजूद है तो इन सबका पिता लाला केदारनाथ भी एक और गवाह की हैसियत से अदालत में मौजूद है ।

मनमोहन देसाई ने एक बार कहा था कि खोया-पाया फ़ॉर्मूले में असली ट्रिक होती है कि बिछुडों हुओं को किस तरह वापस मिलवाया जाता है और यही दर्शकों पर प्रभाव कायम करने वाले मूल तत्वों में से एक है ।  अब देखिये 'वक़्त' के इस क्लाइमेक्स में जिगसा पज़ल जैसे तीन घटक हैं जो एक जगह इकट्ठे तो हो चुके हैं और अब उन्हें अपने अपने खाँचों में फिट होना भर है।  पहला घटक है राजा और रवि,दूसरा विजय और उसकी माँ और तीसरा और आखिरी लाला केदारनाथ जो कोर्ट में राजा को पकड़वाने वाले एक गवाह की हैसियत से मौजूद है ।  केस ख़त्म हो जाता है और सभी पात्र अपने-अपने घर वापिस जाने की तैयारी में हैं कि केदारनाथ लक्ष्मी को अदालत में आते हुए देखता है,उसे पहचान लेता है और दोनों गले लग जाते हैं । लक्ष्मी अपने पति को उसके छोटे बेटे विजय से मिलवाती है ।





लाला केदारनाथ जब अनाथालय में दाखिल अपने बड़े बेटे से मिलते-मिलते रह जाने का जिक्र करता है तो वापस जाने के लिए मुड़ चुके राजकुमार के कानों में यह बात पड़ जाती है और वह लाला के करीब आकर कहता है कि यदि वह उसको उसके बाक़ी दोनों बेटों से मिला दे तो ।




इसपर बलराज साहनी जिस तरह उत्सुकता और गिड़गिड़ाहट से परिपूर्ण लहज़े में कहता है,"तो मैं तेरा मूँह मोतियों से भर दूंगा,उम्र भर तेरी ग़ुलामी करूँगा,तेरे लिए जान तक दे दूंगा",वह देख कर शायद ही कोई दर्शक होगा जो इस ज़बरदस्त अदाकारी से प्रभावित न हुआ हो ।



और इस तरह तीनों घटक मिल बैठते हैं आर फ़िल्म 'वक़्त' अपने सुखद अंत को प्राप्त होती है ।



फ़िल्म के अदाकारों की अगर बात की जाये तो बिलाशक़ बलराज साहनी का अभिनय सबसे सहज और मंझा हुआ है ।  एक गर्वीले व्यक्ति,जिसे किस्मत ने उसके तक़ब्बुर(घमंड) की सज़ा दी हो,की भूमिका बलराज साहनी बखूबी निभाते हैं और फ़िल्म देखते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता है कि यह शख्स महज़ एक्टिंग कर रहा हो ।  चाहे दोस्तों के सामने शेखी बघारना हो या परिवार के बिछुड़ जाने की वेदना प्रकट करना हो या अपने पुत्र को पीटने वाले संचालक को तैश में आकर हलाक़ करना हो या फ़िर अपने परिवार के मिलने की ख़ुशी प्रकट करनी हो बलराज साहनी हर एक दृश्य में अपनी भूमिका में जैसे जान सी डाल देते हैं ।
और अगर बात की जाये फ़िल्म के सबसे आकर्षक,रोमांचक और दिलचस्प किरदार की तो उसके बाबत बिलाशुबह राजकुमार का नाम लिया जायेगा ।  अपनी विशिष्ट संवाद अदायगी और अदाकारी के सबसे जुदा अंदाज़ से राजकुमार परदे पर आते ही चुम्बक सरीखा पार्ट प्ले करते हैं जिससे दर्शकों की नज़रें उनपर ही गड़ी रहती हैं । राजा के किरदार के हलके ग्रे शेड्स भी राजकुमार की मेल खाती शख्सियत के साथ घुलमिल कर उसके किरदार के रंगों को और चटख और चटकीले कर देते हैं ।
एक खुशमिजाज़ और जिंदादिल व्यक्ति की भूमिका में सुनील दत्त अपना पात्र पूरी ईमानदारी से निभाते हैं,शशि कपूर भी गरीब और मजबूर पुत्र का रोल अच्छे से निभा ले जाते हैं ।  साधना और शर्मीला टैगोर भी अपनी-अपनी भूमिका के साथ न्याय करती हैं ।  बुरे लेकिन नफ़ीस और सलीक़ेदार चिनॉय सेठ की भूमिका रहमान बड़ी ही कुशलता से निभाते हैं ।  सहायक भूमिकाओं में अचला सचदेव,हरी शिवदासानी,जीवन,जगदीश राज, मदनपुरी, शशिकला,मोतीलाल,मुबारक,जानकीदास,बीरबल आदि कारगर हैं ।

फ़िल्म के संगीतकार हैं रवि जिन्होंने बड़ा मक़बूल संगीत संजोया है और फ़िल्म के गीत 'वक़्त से दिन और रात,,,,,'ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं तुझे मालूम नहीं,कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी,,,,'दिन हैं बहार के तेरे मेरे इकरार के,,,'हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए,,,'चेहरे पे ख़ुशी छा जाती हैं,आँखों में सुरूर आ जाता है,,,, इत्यादि बेहद मशहूर हुए थे जो आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं ।  अपनी हर फ़िल्म में लता मंगेशकर से गवाने वाले यश चोपड़ा की इस फ़िल्म में लता का एक भी गीत नहीं है जोकि ताज्जुब वाली वाली बात है । कहानी और संवाद बेहद नफीस और चुस्त हैं जिसका श्रेय अख्तर मिर्ज़ा और अख्तरुल ईमान को जाता है ।  फ़िल्म की प्रोडक्शन वैल्यूज बेहद उम्दा और भव्य हैं जिसकी वजह से हर दृश्य में भव्यता जैसे झलकी-झलकी पड़ती है ।  इन सबसे ऊपर यश चोपड़ा का निर्देशन कमाल का है जिसकी वजह से फ़िल्म 'वक़्त' की गिनती सदाबहार क्लासिक फ़िल्मों में की जाती है ।


दोस्तों,'वक़्त' जैसी क्लासिक और कालजयी फ़िल्म पर एक छोटी सी क्विज़ भी पेशे खिदमत है आप सब के लिए । कृपया नीचे दिए गए सवालों के जवाब दीजिये :

1. ज़रा इस तस्वीर को देखिये और बताइए कि फ़िल्म 'वक़्त' में जज की भूमिका निभाने वाले इस अभिनेता का नाम क्या है ।




2. विख्यात हास्य अभिनेता 'बीरबल' का नाम तो सुना होगा आपने और जिनकी तस्वीर नीचे दी जा रही है ! ज़रा बताइए कि बीरबल ने फिल्म 'वक़्त' में क्या भूमिका निभाई थी ।





3. यह तस्वीर फ़िल्म 'वक़्त' से जुडी एक महत्वपूर्ण शख्सियत की है । ज़रा इनका नाम बताइए ।



4. फ़िल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कलाकार 'सुरेन्द्र नाथ' का नाम किशोर कुमार,मुकेश,अशोक कुमार जैसे कलाकारों के साथ किस सन्दर्भ में लिया जाता है ।


दोस्तों,तो यह था स्वर्गीय निर्देशक यश चोपड़ा को श्रद्धांजलि स्वरुप उनकी फ़िल्म 'वक़्त' पर हमारी आज की महफ़िल का तब्सिरा । यदि आपको पसंद आई हो तो अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाएं,सुझाव,टिप्पणी,आलोचना इत्यादि अवश्य ही यहाँ हम सबके साथ बाँटें ।

18 comments:

Unknown said...

हसन भाई.... मैंने जब भी आपका लिखा हुआ कुछ पढ़ा तो यही सोचा की इस बार आपने कमाल कर दिया, अपना पिछला रिकार्ड तोड़ दिया, अब इससे बेहतर आप शायद ही लिख पाये। जब पिछली बार शक्ति के बारे में पढ़ा था तो उस वक्त ये लगा की इससे ज्यादा बढ़िया आप नहीं लिख पायेंगे। पर आप हैं की हर बार मुझे गलत साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं रीव्युज पढने का शौक़ीन हूँ। ख़ास करके उन फिल्मों के रीव्युज मैं जरुर पढता हूँ जो मुझे अच्छी लगती हैं। एक मंझे हुए समीक्षक की नज़र से फिल्म देखने का मज़ा ही कुछ और होता हैं। कई बार समीक्षक की मदद से हम वो चीज़ देखने में कामयाब हो जाते हैं जिसे आम दर्शक की तरह हम नहीं देख पाते। छोटी छोटी चीज़ों पर गौर करती हुई एक मुकम्मल समीक्षा इसी तरह होती हैं जैसे वो अंग्रेजी में कहते हैं न, iceing on the cake.... | कहने का मतलब ये हैं की मैंने काफी ऊँचे नाम वाले समीक्षकों के रीव्युज पढ़े हैं। पर जो मज़ा मुझे आपके लिखे में आता हैं वो लाजवाब हैं। आप तो जनाब बस कहर ढा देते हैं अल्फाजों का। इतना मुकम्मल और जानकारियों से लबरेज़ शाहकार पढना अपने आप में एक बेहतरीन तजुर्बा हैं।

जिस तरह आप हर सीन के साथ उससे ताल्लुक रखती तस्वीर लगाते हैं, एक एक कलाकार की छोटी छोटी विशेषताओं पर गौर करते हैं, सब बेमिसाल हैं। आपकी मेहनत दिखती है जनाब...। आप ने यश चोपड़ा साहब की इस कालजयी कृति को हमारी आँखों के सामने जिंदा कर दिया। यूँ लगा की एक बार फिर वक़्त देख रहे हैं। अल्फाजों के द्वारा फिल्म दिखाना आप ही के बस की बात हैं साहब...!!! आपका शुक्रिया कैसे अदा करे...?

आपकी इस अजीमुश्शान पेशकश को मेरा सलाम..!!!!!

kuldeepjain said...

"अल्फाजों के द्वारा फिल्म दिखाना आप ही के बस की बात हैं साहब" मुबारक साहेब . . . इस पोस्ट की तारीफ में इससे अच्छी बात कही नहीं जा सकती . . क्या खूब कहा है .

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

वाह आपने तो पूरी फ़ि‍ल्‍म ही दि‍खा दी

जितेन्द्र माथुर said...

हसन भाई, इस फिल्म में राजकुमार और सुनील दत्त के बीच हुई कारों की दौड़ के बारे में आपने नहीं लिखा है जो कि साधना को लेकर इन दोनों के बीच चल रही टसर का ही हिस्सा है और बड़ा ही दिलचस्प वाकया है । बाकी आपने इस फिल्म का खाका खींचकर रख दिया है अपने पाठकों के सामने । मैंने यह फिल्म सबसे पहले कलकत्ता में देखी थी मूनलाइट सिनेमा में रात वाले शो में जो कि रात को दस बजे शुरू होकर सवा एक बजे छूटा था और तब मैं अपने घर तक पैदल गया था इस फिल्म की यादों को अपने दिल में बसाए हुए । कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी और हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए मेरे पसंदीदा गीत हैं । बाद में इस फिल्म को मैंने कई बार टीवी पर देखा और अभी भी इसकी डीवीडी पाने पास रखे हुए हूँ क्योंकि इसे चाहे जितनी बार देखा जाए, इसका जादू कभी फीका नहीं पड़ता । आपने बलराज साहनी के अभिनय की बाबत जो कुछ लिखा है, वो सोलह आने सही है । उन्होंने अपने हर दृश्य को अद्वितीय बना दिया है जिसे देखने वाला कभी नहीं भूल सकता । राजकुमार तो इसी फिल्म की बदौलत अपनी विशेष छवि जीवन भर के लिए बना गए । साधना मेरे मेह्बूब के बाद फिर से फ़ैशन की दुनिया में छा गईं । मगर हुज़ूर हसीनों के रूमानी दिलों पर राज करने वाला किरदार तो निभाया सुनील दत्त ने जिनके गुल-ए-गुलज़ार, जान-ए-बहार को भूल पाए, ऐसी कौनसी खातून रही होगी उस ज़माने के हिन्दुस्तान में ?

बहुत-बहुत शुक्रिया इस पोस्ट के लिए । आपके क्विज का सामना मैं नहीं कर रहा हूँ मगर एक सवाल (एक नौजवान की तस्वीर वाला) कुछ ज्यादा ही आसान है ।

Comic World said...

शुक्रिया मुबारक भाई । यह आप ही जैसे दोस्तों की हौंसला अफज़ाई है जो मुझे लिखते रहने की प्रेरणा देती रहती है ।

Comic World said...

शुक्रिया कुलदीप भाई । आपका स्वागत है ।

Comic World said...

धन्यवाद् काजल कुमार जी ।

Comic World said...

शुक्रिया जीतेन्द्र भाई । राजकुमार और सुनील दत्त के बीच की कार रेस का ज़िक्र जान-बूझ कर कुछ मुद्दे कमेंट्स के दौरान चर्चा के लिए भी छोड़ देने के चलते नहीं किया गया । फ़िल्म के बाबत आपने बिलकुल सही फ़रमाया कि इस फ़िल्म का जादू कभी फीका नहीं पड़ सकता । आपसे क्विज़ के उत्तरों की अपेक्षा है जिसे आप कमेंट्स द्वारा दे सकते हैं ।

Silly Boy said...

मैं शायद 6th क्लास मैं था जब 1988 मैं यह चलचित्र मैंने देखा था। आपकी समीक्षा अति उत्तम हैं और मुझे कुछ पुराने दिनो की याद दिला गयी। उन दिनों पुरानी फिल्मे rerelease हुआ करती थी। इस तरह की भवय फिल्मों को देखने का असली मज़ा सिनेमा घर के बड़े पर्दे पर ही है। बाद मैं शायद ये चलचित्र दूरदर्शन पर भी देखा पर वो मजा नहीं आया जो बड़े पर्दे पर आया था। आपकी तरह मैं भी फिल्मों के सेंसर बोर्ड सर्टिफिकेट ओर क्रेडिट देखने का मुरीद हूँ। अब भी जब डीवीडी पर फिल्म देखता हूँ तो क्रेडिट्स को फास्ट फॉरवर्ड नहीं करता और इससे साथ देखने वाले दर्शको (मेरी शरीकएहयात) को बहुत कोफ्त होती है। आपके और मेरा नजरिया बहुत कुछ मिलता हैं। मैं भी आजकल कॉमिक्स छोड़ पुरानी फिल्मे ही देख रहा हूँ। कुछ तो अब पुरानी कॉमिक्स मिलती नहीं और हमारे कॉमिक्स भाइयो के कारण (जो की एक फटी हुई कॉमिक्स के लिए जो की इतनी rare भी नहीं है सेकड़ों रुपीस देने को ready है ओर इतने desperate की एक जनाब तो मेरे एक कॉमिक्स के दाम चुकाने के बाद भी विक्रेता को अधिक दाम का लालच देकर उससे मुझे कॉमिक्स लेने को कह रहे थे। ) कॉमिक्स विक्रेताओं ने उनके दाम भी आनाप शनाप बढ़ा दिये हैं। मेरी टूटी फूटी हिन्दी के लिए माफ करे। आप जितनी अच्छी हिन्दी नहीं है मेरी।

parag said...

More features of Waqt
1-B R Chopra had originally planned the Waqt with Prithviraj Kapoor and his three sons, Raj, Shammi and Shashi. Eventually, only Shashi Kapoor was cast in the film.

2-Though salwar kameez was the rage those days, Sadhana popularised the fashion of churidar kurtas with Waqt. To win Yash Chopra's approval, she dressed in a churidar kurta when he came to narrate the story to her.Yashji was so impressed with Sadhan, that he accepted her dressing in film immediately.
3-The movie Waqt has an uncredited remake in malayalam by name Kolilakkam during the climax of which happened the tragic end of Malayalam Superstar Jayan who was hanging to a Helicopter while performing a stunt.
4- Sons were written by Sahir Ludhianvi ( probably best song writer of hindi cinema)

Comic World said...

शुक्रिया अरुण भाई, आपका स्वागत है । आपको काफ़ी समय बाद ब्लॉग देखकर अच्छा लगा,आप उन नियमित पाठकों में से हो जिनके बिना कॉमिक वर्ल्ड अधूरा है । जी हाँ दुरुस्त फ़रमाया आपने कॉमिक्स के लिए मची बेसिरपैर की होड़ और कालाबाज़ारी के चलते और कुछ रुचियों के सामायिक परिवर्तनों के चलते कॉमिक्स की दुनिया से एक बार फिर दिल उचाट हो गया है और मन आजकल क्लासिक और बढ़िया फ़िल्मों में रम रहा है जिनके बारे में ब्लॉग पर तब्सिरे का दौर चल ही रहा है । चर्चा-परिचर्चा की फ़ेहरिस्त में अभी और भी कई फ़िल्में हैं जिन्हें उम्मीद है कि आप जैसे सुधि पाठकों के साथ आगे बढ़ाया जा सकेगा । यह देखकर आश्चर्य हो रहा है कि क्विज़ के जवाब देने की आप समेत किसी ने भी कोशिश नहीं की ! क्या क्विज़ ज़्यादा ही कठिन हो गयी है ?

Comic World said...

Parag Bhai thanks for such interesting information on Movie Waqt.Yes,its true that originally this movie was planned with Senior Kapoor and his three sons but eventually the whole cast was changed excluding Shashi Kapoor.

VISHAL said...

वक्त फिल्म को देखे एक लम्बा अरसा हो गया है कॉमिक भाई , इस फिल्म की यादें भी धुंधली पड़ चुकी थी , अगर याद था तो बस फिल्म की शुरुआत में आता पेंडुलम , तूफान में गिरते मकान , बलराज साहनी की बुलंद अदाकारी और राजकुमार के संवाद , मगर तारीफ करनी होगी आपकी इस पोस्ट की जिसको पड़ते पड़ते काफी कुछ याद आ गया ! ठीक उसी तरह से जैसे हाथ फेरने पर शीशे पर छाया धुंधलापन गायब होता है , निसंदेह , इस फिल्म के showstopper राजकुमार ही रहे हैं जो अपनी विलक्षण अदाकारी के बूते सब पर भारी साबित हुए सिवाए बलराज साहनी के , जिन्होंने अपनी असीम अभिनय प्रतिभा को इस फिल्म में दर्शाया
फिल्म के सर्टिफिकेट में मुझे भी दिलचस्पी रहती थी जो थोडा सा झिलमिलाता सा प्रतीत होता था जिसमें कुछ असपष्ट सी आड़ी तिरछी लाईनें रहती थी (अगर आपने कभी गौर से देखा हो ) अगर रील की लम्बाई 18 यां 20 तक होती थी तो मन को ख़ुशी होती थी , मगर उसके बाद जैसे आपको और बारीकियां पढनें की इच्छा रहती है वैसी मुझे नहीं रही , बचपन में मैं अपने पिता जी को बार बार पूछता की अब फिल्म कब शुरू होगी तो उन्होंने मुझे कहा की जब 'directed by' आएगा तो उसके बाद फिल्म शुरू होगी :)
आज जब सभी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने को तरजीह देते हैं तो मुझे यहाँ पर एक चीज बहुत याद आती है :( और वो चीज हैं पहले वाले सिनेमा हाल के टिकेट के रंग ! जो ज्यादातार पीले, गुलाबी तो कभी कभी बैंगनी रंग के भी होते थे, और उस पर लगते धडाधड ठप्पे :)) फिल्म के आखिर में जब फिल्म ख़तम होने की घंटी बजती थी तो मन यह सोच कर उदास हो जाता था की 'अभी फिर घर जा कर पड़ना पड़ेगा , वही होम वर्क .....उफ़ !
कॉमिक भाई ,आप भी सोच रहे होगे की यह मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया !
वकत फिल्म का एक डायलाग समझ नहीं आया की "मगर प्याली को होंठ तक पहुँचते पहुँचते कभी बरस बीत जाते हैं' इसकी आप कृपया करके प्रसंग सहित व्याख्या कर दें
क्विज़ के लिए माफ़ी चाहता हूँ
अगली फ़िल्मी पोस्ट किसी कॉमेडी फिल्म पर जरुर करें , "शौक़ीन" के बारे में क्या ख्याल है ?


Comic World said...

विशाल भाई सदा की तरह आपकी दिल को छू लेने वाली कमेन्ट के लिए शुक्रिया । जी हाँ,फ़िल्म के टिकटों की श़क्ल,रंग और आकार में भी मेरी काफी रूचि रहती थी और टिकट लेने के बाद मैं हमेशा टिकट हाथ में लेकर उसकी सारी तफ़सील पढ़ता था मसलन उसपर छपी हुई क़ीमत जिसमे मनोरंजन शुल्क,थियेटर का प्रवेश शुल्क इत्यादि का ज़िक्र रहता था,उसके बाद उसके रंग पर गौर किया जाता था जोकि अक्सर पीला,लाल,गुलाबी या उन्नाबी(पर्पल) होता था । हमारे शहर के सभी थियेटरों के टिकट भी अलग-अलग तरह के होते थे मसलन प्रभा थियेटर-जिसका कि मैंने 'शक्ति' फ़िल्म की पोस्ट में ज़िक्र-के टिकट आकार में बाक़ी सभी थियेटरों में सबसे लम्बे और बड़े होते थे जिसकी वजह से मुझे कदरन प्रभा टॉकीज़ में फ़िल्म देखने में ज़्यादा मज़ा आता था । प्रभा टॉकीज़ के टिकट पर अंग्रेज़ी के अक्षरों में Prabha लिखा भी बड़ी खूबसूरती से होता था । टिकट हमेशा कमीज़ की उपरी जेब में रखा जाता था जिससे कि जब टिकट-चैकर टिकट चेक करने आये तो उसे झट से कमीज़ की ऊपर की जेब से टिकट निकल कर दिया जा सके जिससे फ़िल्म देखने में एक क्षण का भी व्यवधान न पड़े । फ़िल्म देखते समय बीच बीच में कमीज़ की जेब टटोल कर भी देखी जाती थी कि टिकट सुरक्षित भी है कि नहीं ।
मुझे याद है जब 1985 में फ़िल्म 'मर्द' प्रदर्शित हुई थी तो उसके टिकट काफ़ी लम्बे थे जिनपर बाक़ायदा फ़िल्म का पोस्टर भी छपा था और मैं सुबह-सवरे की एडवांस बुकिंग की लम्बी लाइन में लगकर सफलतापूर्वक टिकट पाने के बाद उन्हें बड़े ही शौक़ और सुखद आश्चर्य के साथ निहार रहा था !
विशाल भाई फ़िल्म 'वक़्त' के आपके द्वारा पूछे गए संवाद का मतलब तश्बीह(उदहारण) द्वारा सिर्फ़ यह जताना भर था कि इंसान के मंसूबे वक्त(या ऊपर वाले) की मर्ज़ी पर निर्भर करते हैं मतलब और कभी अगर हाथ में चाय की प्याली हो और इन्सान को उसे पीने का मंसूबा बनाकर सिर्फ़ होंठों तक ही ले जाना हो लेकिन अगर वक़्त की मर्ज़ी न हो तो हाथ में थमी हुई चाय की प्याली को होंठों तक पहुँचने में भी बरसों लग सकते हैं ।
विशाल भाई आने वालों तब्सिरों की फ़ेहरिस्त में 'शौक़ीन' समेत और भी बहुत सी फ़िल्में हैं लेकिन शायद 'शौक़ीन' का नंबर कुछ समय पश्चात् आये क्योंकि खाकसार के पास अभी इस फ़िल्म की सीडी या डीवीडी उपलब्ध नहीं है । तब तक क्यों ना आप ही 'शौक़ीन' पर एक पोस्ट लिखें अपने दिलफ़रेब और रोचक अंदाज़ में!

VISHAL said...

कॉमिक भाई , आपने मर्द फिल्म का जिक्र करके इससे जुडी यादें ताजा कर दी , इस फिल्म की खासियत थी की इसका टाइटल फिल्म के शुरू होने के काफी देर बता आता है , जब अमृता सिंह , अमिताभ से पूछती है "तुम्हारा नाम क्या है ?" तो अमिताभ का धांसू जवाब "वही जो हर औरत की जबान पर होता है " और इसके बाद फिल्म के परदे पर आता है फिल्म का टाइटल "मर्द" "मर्द" "मर्द" .. और इसके पीछे चलता नगाड़ानुमा सा संगीत कुछ इस तरह से .. ठेन्न ठेन्न ठें .....और इसके बाद बादल घोड़े के खुर वापस जमीन पर आ लगते हैं और इसके बाद फिल्म आगे बदती है :)
जाको रखे साईयाँ वाले गाने में 'जोगिन्दर' ( रंगा खुश ) का भांगड़ा , अमृता सिंह की गरूर से भरी हुई गजब की अदाकारी और सबसे ऊपर रुस्तमे हिन्द 'दारा सिंह ' उर्फ़ आजाद सिंह , के तो क्या कहने .... बाकि फिर कभी

Unknown said...

ज़हीर भाई इस बार देरी से उपस्थिती दर्ज करने के लिए माफी चाहूँगा, दिवाली के त्योहार की सरगर्मी मे इधर कई दिनों से इस ओर रुख करने का समय ही नहीं मिल पा रहा था॰ ‘वक़्त’, जैसा की अभी कुछ ही समय पहले मैंने अपने ब्लॉग पे इस मूवी को पोस्ट करते वक़्त भी लिखा है की ये यश चोपड़ा के द्वारा निर्देशित की गयी मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म है॰ भले ही वो रोमांटिक फिल्मों के लिए जादा जाने जाते हैं परंतु फिर भी मैं जब इस फिल्म को उनकी अन्य फिल्मों से तुलना करता हूँ तो इसको उन सबसे कहीं अलग और बढ़िया पाता हूँ, फिर चाहे वो उनकी इस फिल्म पे पकड़, कलाकारों का अभिनय या फिर कहानी के घटना चक्रों मे बदलाव हो, सब मुझे बहुत पसंद है॰ इस फिल्म को एक और बात अन्य फिल्मों से अलग करती है और वो है इसमे बलराज साहनी (जो की मेरी नज़र में उस समय के सबसे सक्षम कलाकार थे) की उपस्थिती॰ इसके अलावा ये फिल्म सुनील दत्त और राज कुमार को शायद पहली बार पर्दे पे एक साथ लाती है (अगर मैं गलत हूँ तो प्लीज़ मुझे बताइएगा) जिस कारण से सर्वप्रथम मैंने इस फिल्म को देखने का निर्णय किया था॰
यश चोपड़ा ने इस फिल्म को बखूबी पिरोया है॰ उन्होने हर कलाकार की अभिनय प्रतिभा का बखूबी प्रयोग किया है (हालांकि मेरी नज़र में शशि कपूर इससे अच्छा कर सकते थे) और हर कलाकार ने अपना पात्र अच्छे से निभाया है॰ फिल्म को हालांकि इस लिहाज से बनाया गया था की वो एक परिवार की कहानी हो की किस प्रकार वो वक़्त की मार से एक दूसरे से बिछड़ते हैं और फिर किस तरह वक़्त ही उन्हे दोबारा मिलाता है और इस प्रयास में उन्होने एक साधारण कहानी देने के बजाय सस्पेंस का तड़का लगाया है जो की काबिल-ए-तारीफ है॰
और भी फिल्मों का इंतज़ार है॰
क्षमा कीजिएगा ज़हीर भाई मैं भी आपके प्रश्नों का उत्तर देने मे असमर्थ हूँ॰ लेकिन इनके उत्तर आप ज़रूर बताएं॰
और रही बात ‘शौकीन’ की तो आप चाहें तो मैं इस फिल्म को उपलब्ध करा सकता हूँ॰

aditya M said...

zaheer sahab
umda lekhni or sammanit shabdon ka soochak hai aap ka ye post..

Guzre zamane ki daastan padhne ka sakoon, insaan ka bhagwan se takkar lene ka zanoon or vo masoomiyat zindabad thi hai or hamesha rahegi..

Raj kumar sahab ki kaifiyat dekhte hi banti hai is film

aap ke is post ko salaam!

Quiz ke answer try kar raha hun

1.
2. Birbal ne shashi kapor ke college friend ki bhoomika ki thi
3, Yash chopra ji
4, Anup kumar ( jo ashok kumar sahab ke bhai the)

Shubhkamnaon sahit

aapka
aditya

Comic World said...

आदित्य भाई शुक्रिया और इस बात का भी शुक्रिया की आपने क्विज़ के सवालों के जवाब देने की कोशिश भी की । आपका एक जवाब सही है यश चोपड़ा की तस्वीर वाला और बाक़ी सही नहीं हैं जिनके जवाब मैं अगली फ़िल्म सम्बंधित पोस्ट में पोस्ट करूँगा ।

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