Wednesday, May 11, 2011

# Safi Reloaded

दोस्तों,मशहूर और मारूफ़ नॉवेलिस्ट इब्ने सफ़ी के पुराने उपन्यासों का पुनर्प्रकाशन हार्पर-कोलिन्स प्रकाशन द्वारा हाल में ही किया गया है जिसके प्रथम चरण में पूर्व में जासूसी दुनिया(निकहत प्रकाशन,इलाहबाद) द्वारा प्रकाशित प्रथम आठ उपन्यासों को हिंदी में प्रकाशित किया गया है.


























बढ़िया कागज़ एवं उत्तम छपाई से सुसज्जित यह उपन्यास आकर्षक बन पड़े हैं परन्तु सिर्फ एक कमी खटकती है और वो है आवरण चित्रों का बेहद साधारण होना जो इब्ने सफ़ी जैसी कद्दावर शख्सियत के साथ कतई न्याय नहीं करता.



















पिछले दिनों की अपनी कलकत्ता(मुझे बजाये 'कोलकाता' के कलकत्ता कहना ही ज़्यादा सुहाता है) यात्रा के दौरान मुझे इन आठ में से छः उपन्यास रेलवे स्टेशन के बुक स्टाल पर मिल गए.




















जो बात इन 'नए' उपन्यासों को अनूठा और अलग बनाती है वो यह है की यह उपन्यास मूल उर्दू कथानक का ठेठ और विशुद्ध हिंदी अनुवाद मात्र नहीं हैं जो की जासूसी दुनिया द्वारा प्रकाशित हिंदी संस्करण के हुआ करते थे और जिसकी वजह से उन हिंदी संस्करणों में उतना मज़ा और लुत्फ़ नहीं आता था जोकि मूल उर्दू संस्करण मुहैय्या कराते थे,बल्कि कोलिन्स प्रकाशित उपन्यास तो उर्दू के लफ़्ज़ों,नामों,जगहों इत्यादि को जस-का-तस ही देवनागरी लिपि में पेश करते हैं जो उर्दू जनित सौन्दर्य और मिठास को खोने नहीं देते.
जासूसी दुनिया ने नामालूम कारणों से हिंदी संस्करणों में पात्रों और जगहों के नाम तक बदलने से परहेज़ नहीं किया,जैसे की नायक 'फरीदी' को बदल कर विनोद कर दिया गया,नवाब राशिदुज्ज़मा को 'ठाकुर धरमपाल' कर दिया गया और 'गज़ाला' को 'आरती'.हिंदी में प्रकाशित प्रथम अंक का मूल उर्दू उन्वान(शीर्षक) 'पुर-असरार कुंवा' था जिसे बदल कर 'खून की बौछार' कर दिया गया,हालाँकि हार्पर-कोलिन्स ने भी इसी अंक का शीर्षक मूल शीर्षक से जुदा,'कुँए का राज़',रखा है लेकिन बाकि के कथानक में ज़रा सी भी छेडछाड नहीं है.




















अगर आप जासूसी दुनिया द्वारा प्रकाशित 'खून की बौछार' और कोलिन्स द्वारा प्रकाशित 'कुँए का राज़' को पढ़ते हैं तो आप पाएंगे की जासूसी दुनिया ने कथानक पर भी जगह जगह कैंची चलायी है(!!??) जबकि कोलिन्स द्वारा पूरा मूल उपन्यास पेश किया गया है.
'खून की बौछार' पहले ही हमारे मित्र अनुपम भाई द्वारा अपने ब्लॉग पर उपलब्ध कराया जा चूका है जिसे पाठक इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकतें हैं.
सुन्दर शब्द साइज़ और बेहतर छपाई वाले इन उपन्यासों का मूल्य(Rs.60/-)थोड़ा ज़्यादा है जिसे अगर नज़रंदाज़ कर दिया जाये तो यह उपन्यास निश्चय ही संग्रहयोग्य हैं.


13 comments:

All izz well ! said...

Zaheer bhai shukriya, maine bhi in novels ka poora set aligarh railway station se kharida tha.zabardast

Anonymous said...

AKF: ज़हीर भाई धन्यवाद ये जानकारी देने के लिए. अनुपम भाई के ब्लॉग पे इब्ने सफी के बारे में पढने के बाद मेरे मन में उनके उपन्यास पढने की बड़ी ही तीव्र इच्छा थी जो की अब शायद आपकी इस जानकारी के बाद संभव हो सके. अब इसे मेरा दुर्भाग्य ही कहिये के इलाहाबाद का होने के बावजूद मैंने इनका एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा है हाँ इनके बारे में बस थोड़ा बहुत अपने नाना जी से सूना जरूर था. आशा है 'हार्पर-कोलिन्स' प्रकाशन इब्ने सफी जी के सारे उपन्यासों को फिर से उपलब्ध कराएगा.

Comic World said...

AKF: स्वागत है आपका आनंद भाई,सफ़ी साहब के यह सारे हार्पर-कोलिन्स वाले नॉवेल आप flipkart द्वारा कुछ discount के साथ घर बैठे प्राप्त कर सकते हैं.

Anonymous said...

All Izz Well: Zaheer bhai shukriya, maine bhi in novels ka poora set aligarh railway station se kharida tha.zabardast

Comic World said...

All Is Well: Welcome.It would be appreciative if you could put up your view about those novels which you have.Thanks.

prabhat said...

It was long awaited & thanks for sharing info. Almost one decade back, I visited Nikahat Prakashan in Allahabad searching Hindi translation of Ibne Safi. They had a pile of Jassosi Duniya but all in Urdu.
You have mentioned change of names in reprints by Collins, as far as I remember Hindi translations of Jassosi Duniya, too, had character of Vinod, Captain Hamid, and Rajesh.

Comic World said...

Prabhat: Welcome Prabhat.Well,change in name/places is done in Hindi edition of Jasoosi Duniya only,whereas Harper & Collins has kept original nomenclature intact.

भारतीय नागरिक said...

इब्ने सफी साहब के दो-तीन नावल ही पढ़ सका.. शायद जासूसी दुनिया नाम की पत्रिका आती थी... अब तो वह मजा ही चला गया.. इतनी तेज हो गयी जिन्दगी कि जीना पीछे छूट गया...

brijesh said...

My interest was primarily in spy novels(jasoosi). samajik/socials of that era were not my favorites though gulshan nanda,ranu,rajvansh and sameer etcetra were popular. kushwaha kant was somewhere inbetween-patriotic,and mystrey a bit social trown in. but real inheritors of ibne safi were vedparkash kamboj,h iqbal,n safi, omparkash sharma, followed by ved parkash sharma,kumar kashyap and bimal chatterjee.if i remember correctly vps in foreword of his series on devkanta a la chanderkanta wrote that some of later kamboj novels (hero vijay) were actually written by him.he later introduced vikas a new hero along with vijay.similarly op sharma was followed by kumar kashyap hero rajesh being supplemented with vikrant(a six footer amitabh bacchan).vimal chatterjee (chot pe chot etcetra)took over imran and colnel vinod captain hamid etcetra.anti pakistan,usa and anichina noises started appearing in these novels with russia USSR as friend in form of bogrof.fumanchu and singhi were the villians. pakistani spies were laughing stocks.pakistani infiltrators were subject matter in pakistani ghuspaithyias and even seventh fleet of us navyy became a subject with its manoeuvres in indian ocean being in news. a comprative study with todays pulp is needed to see how the subjects have changed.

Comic World said...

Brijesh: Yeah,it can be easily said that Ibne Safi was the 'inspiration' behind many popular pulp writers of that era.In fact Ved Prakash Sharma's 'Vijay' has been clearly morphed from Safi's 'Imran',also many villain's name have been copied from Safi's novels such as 'Fomanchu.Singhi' etc.
O.P.Sharma,V.P.Kamboj,Kumar Kashyap etc were the first generation writers inspired by Safian way of writing which later was refined and modulated by the likes of Ved Prakash Sharma.

राजन इकबाल said...

I've read few of these newly printed ones and I liked them

जितेन्द्र माथुर said...

आपका आलेख बेहद वक़ती है हसन भाई । मैंने इब्ने सफ़ी साहब का 'जंगल में लाश' पढ़ा जो की हार्पर कॉलिन्स ने ही निकाला है । मूल्य अधिक है । कम होना चाहिए था । आवरण के पीछे सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब के खयालात भी हैं जो कि नई पीढ़ी को सफ़ी साहब के उपन्यासों की ओर खींचने में मददगार साबित हो सकते हैं । मैं सफ़ी साहब की कलाम से ज़्यादा मुतास्सिर तो नहीं हुआ हूँ लेकिन मैं इनके और उपन्यास पढ़ना चाहता हूँ और उसके बाद ही किसी नतीजे पर पहुँचना मुनासिब समझता हूँ ।

Comic World said...

जी हाँ जीतेन्द्र भाई मैं आपसे सहमत हूँ । सफ़ी साहब चूँकि उस ज़माने के पहले कामयाब लुगदी साहित्य के लेखक थे जिस ज़माने में इस तरह की कहानियों की ज्यादा रीडरशिप थी भी नहीं इसलिए सफ़ी साहब इस क़दर मक़बूल भी हुए । फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सफ़ी साहब के कई किरदार बाकी लेखकों के किरदारों के लिए प्रेरणा स्रोत बने ।

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